शनिवार, 29 अगस्त 2009

मेरी कविता

वो ------------
वेा मेरे अंतस में छुपा रहा
मैं दर दर सिर पटकता रहा
सारी उमर यूं मासूम बना
वो मुझे रोज ही ठगता रहा
देखा जब भी प्यार से उधर
अजनबी सा ही तकता रहा
बांटना चाहा दर्द उसके
क्यूं मेरे हाथ झटकता रहा 

म्ेारी सूरत ही है ऐसी
जिंदगी भर ये समझता रहा
देखा सदा मतलब से अपना
मैं बस यही षुक्र मनाता रहा
 साथ मेरे वो मेरा साथी
इन खयालों में भटकता रहा

-किरण राजपुरोहित नितिला


बुधवार, 26 अगस्त 2009

मेरी किवता

विष्वास ये गूंजते रहे 

मुड़े हैं जिंदगियों के पन्ने
वक्त उन्हें उधेड़ता बुनता रहा
दंगाइयों के कहकहे सुन कर
जमीं का बदन हरहराता रहा
                                       
क्यूं है क्या है कौन है??
प्रष्न सदैव पूछते रहे


थका सा सूरज उगा लज्जित सा
और दोपहर तिलमिलाती है
आस्था के आंगन में
तुच्छ रोषनी झिलमिलाती है


यादों के पिछवाड़े में सदा
मोरमन मौन कूकते रहे



किलकारी ही कत्ल न हो
मां हर पल मन्नत यही मांगती
जवानियों के ज्वार न भटके
आषीशें हर रात जागती

बदलेगा इंसान यद
िविष्वास ये गूंजते रहे!!! ----किरण राजपुरोहित नितिला

सोमवार, 24 अगस्त 2009

ऐ ! मेरी कविता 
सपनों को
पंाव दें
ऐ मेरी कविता!
चल तू चलती
उमड़ घुमड़
मन में
कुछ ऐसे
जैसे
कोख में प्राण,
प्राणदायी पीड़ा की
 सुखद अनुभूति में
जिंदगी जी लेने दे
 उस कसमसाहट में
अमृत प्राण बन
उद्घोशित हो
मानसाकाष में रच दे
 ऐसी रेखाओं की बनावट
वे जो
 विचारों
वचनों को
 दे पुख्ता भूमि!

--किरण राजपुरोहित नितिला



शनिवार, 22 अगस्त 2009

बिटिया.............

प्ंखों को जरा लरज़ा बिटिया
बाहर नीला आसमां बिटिया
मेरेे अरमान तेरे दिल में
अब खुली हवा दिखा बिटिया
मौसम अड़चनें देता रहेगा
मुष्किलें से न घबरा बिटिया
आंचल भर भर आषा और आषीश है
करेगा तेरी रक्षा बिटिया
अहंकार उसमें हो कितना ही
तेरे दम से दुनिया बिटिया
देख अपनी जड़ें खोद कर वो
इतरा रहा है कितना बिटिया
बैठा घात लगाए सदियों से
पर तू भी है सबला बिटिया
-किरण राजपुरोहित नितिला

गुरुवार, 20 अगस्त 2009


छू कर मेरे मन को


-हमेषा सच बोलोगे तो ध्यान नही रखना पड़ेगा कि कल क्या बोला था।
-एक सच्चा हदय सारे संसार को विलक्षण षक्तियों से अधिक मूल्यवान है।
-जिस तरह आग से आग नहीं बुझती उसी तरह पाप से पाप खत्म नही होता ।
-बुद्धि के लिये अध्ययन इतना ही आवष्यक है जितना षरीर के लिये व्यायाम।
-कुछ लोग अच्छे अवसर खोर ही महान्बनते है।

बुधवार, 19 अगस्त 2009


लहरें
मिलने केा आतुर
सिर पटक रोती,
निर्मोही धरती
बार बार परे धकेलती
प्यासी आंखेंा से
निहारता रहा चांद!
इठलाती हुई धरा
आगे बढ जाती ,
क्षितिज पर चूमती
आकाष को
वियोगियों को तड़पाती
खुद भी प्यासी रह जाती!
-किरण राजपुरोहित नितिला

मैं छाया हूं!!!
हर एक का रोषनी में साया हूं
सुख में मुझे देखते नही
चेहरा उपर किये
अनदेखी किये जाते है,
पीछा करती हूं फिर भी
रौंदना चाहते है पैरों से
सरकती जाती हूं मैं
साथ सब छोड़ देते है
रहती हूं तब भी मैं
भंगुर से मोह बंधाते हैं
लेकिन चिता मंे भी साथ देती हूं मैं
अंधेरे में न दिखूं
हूं तब भी मैं
अमीर गरीब बूढा जवान
भेद नही तनिक करती मैं
सबका साथ निभाती जाती मैं
सूर्य की सहचरी हूं मैं
सृश्टि के पहले कण से
अस्तित्व में हूं मैं
हर वस्तु
हर अकार प्रकार
हर प्राणी का अभिन्न हूं मैं
सुख दुख में भी समान प्रेम है
प्राणी से,
लेना कुछ नही है मुझे
इस तुच्छ प्राणी से
निस्वार्थिनी हूं मैं !1
सहभागिनी हूं मैं!!
-किरण राजपुरोहित नितिला

रविवार, 2 अगस्त 2009


My Oil Painting

म्ेहनत का सार लघु कथा

एक बार महादेव को दुनिया पर बहुत क्रोध आया। षंख नही बजायेेगंे। महादेव षंख बजायें तो बरसात हो। अकाल पर अकाल पड़ा। पानी की एक बूंद भी नहीं बरसी। दुनिया बहुत कलपी बहुत पा्रयष्चित किया पर महादेव टस से मस नही हुए।
एक बार महादेव और पार्वती आकाष मार्ग से कहीं जा रहे थे। क्या देखते हैं ऐसे भयंकर सूखें में भ्ी एक जाट खेत जोत रहा है । एडी से चोटी तक पसीने सराबोर। भोले बाबा के अचरज का पार नही। बरसात हुए तो जमाना हुआ । फिर यह खेत में क्या कर रहा है? इसका दिमाग तो नही चल गया?
विमान से उतर कर चैधरी के पास गये। पूछा ‘‘ पगले क्यों बेकार मेहनत कर रहा है? सूखी धरती में पसीना बहाने से क्या लाभ! पानी का तो सपना भी दुर्लभ है ’’
चैधरी बोला ‘‘ ठीक कहत हो,पर जोतना भूल न जाउं इस लिए हर साल खेत जोतता हूं। जोतन भूल गया तो पानी बरसा न बरसा बराबर।’’
बात महादेव को भी जंची पर सोचा अरसा हुआ मैंने भी षंख नही बजाया। कहीं बजाना भूल तो नहीं गया?’’

वहीं खड़े खड़े षंख जोर से बजाया और चैफेर घटाएं घुमड़ी । बेहिसाब पानी बरसा।
आभार श्री विजयदान देथा

नियति..........


एक दिन
नियति
अपने नियत काम
छोड़ कर
कुछ बुनने बैठ गई
मखमली सुनहरी डोरी से
मेरा भाग्य लिख
सतरंगे तारें सी चुन्नटें डाल
रेष्मी धागे
से सहला दिया
मेरी छोटी सी मुलायम जिंदगी बुनी
गुलाबी दिन बुने
और
भीनी ख्ुष्बू की फुहार दे
दो घड़ी ठिठक निहरने लगी
सोच तनिक!
छत के बरामदे में कूंची ले खड़े
रंगों के छींटे से
और मोहक लगते
गोरे चिट्रटे लड़के पर फिरा दिया!
-----------किरण राजपुरोति नितिला

शनिवार, 1 अगस्त 2009


स्मृतियों के चलचित्र

स्मृतियों
का किवाड़
थपथपाता है
कभी कभी ये मन
फुर्सत में
अतीत को जीवंत करने
बैठ जाता है ये मन,
ये गहरा मन
दुहराता है
स्मृतियों के
चलचित्र
मानस पट पर उभरते है
वे चेहरे जो
आपधापी में विस्मृत से हेा गये
अब जाने क्यूं
याद आकर
भले भले से लगते
अपनापन लिये हुये,
लगता!
इन्हें इस तरह
बीत जाना जान कर
मुठ्रठी में भींच कर
क्यूं न रख लिया,
बचपन का हर पल
याद भले नहीं
लेकिन कई चेहरे
अब याद कर कर के
एक प्रष्न के
सटीक उत्तर की भांति
रटे जा चुके हैं,
जब चाहा
मानस में आकर
बैठ जाते हैं वे
और यादों की
नटखट खिड़कियां
खुल खुल जाती है
वर्षों पुरानी
सुगंधित हवा
नथुनों में
तैरती सी लगती है
फिर से जानी पहचानी
और पुराने चलचित्र
लड़खड़ा कर संभलने लगते है!!!!!
.........किरण राजपुरोहित नितिला