बुधवार, 10 नवंबर 2010

तुम्हें पता है ???


तुम्हें पता है ???              कविता


बादलों की अनधुनी
अधधुली रुई
सिमटी है मेरे आंचल में
महसूस किया तुम्हें
मैंने और
भीगे तुम मेरे प्यार में
लहर लहर लहराये
 तुम्हारे इषारे
पत्तियों में छनती धूप की तरह
 मेरे हदय आंगन में
 समेट लिया
तुम्हारे छुए प्यार को
पवित्र ओस की तरह
 और सज गया एक फूल
 मेरे जीवन में
हूबहू तम्हारी तरह !!!!
तुम्हें पता है ???
 वो फूल
 अब भी
इर्द गिर्द ही है
मेरे !!....किरण राजपुरोहित नितिला

मंगलवार, 9 नवंबर 2010

मेरा नन्हा दीया

मेरा नन्हा दीया
दीवाली की शाम सूरज
जब लौटकर अस्ताचल आया
मेरे नन्हे दीये को देख
मुग्ध हो मंद मंद मुस्कुराया,
मैंने अर्पित की कुछ उसे
किरणें सुनहरे प्रकाश की
हैरत से थाम,फिरा दिया
उसने जहां  अंधेरी रात थी,
सुखी वह धरा की गोद में
बरस की थकन मिटा रहा था
तिमिर दुबका  था ,मेरा
नन्हा दीया मुस्कुरा रहा था!!....किरण राजपुरोहित नितिला

रविवार, 17 अक्तूबर 2010

मैं हूं...


मैं हूं...
मुस्कुराहट पर लरजती
आहटों पर खनकती हूं
सपनों सा सुहाना राज हूं
मानस का गुनगुनाता साज हूं
कविता का रंगमय नभ
बिरखा की तान बरतती हूं
मंदिर में दीपों की दीपिका
आस्था के मन की आरती हूं
कृष्ण में राधा की झांकी
मीरां के मन की बांसुरी हूं
रात का ताना प्रीत का
पिया के प्रेम की ओढनी हूं
चांद रात तारों की खिलखिल
नव सृष्टि की अठखेली हूं
नीरव निशा की आगम  आशा
जुगनू सी दिप दिप रोशनी हूं
अरुणोदय की नितिला मैं!
नव कलरव संग उगती हूं
..किरण राजपुरोहित नितिला

शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2010

तुम साथ चल कर तो देखो!


ये सफर हसीन बन जायेगा
तुम साथ चल कर तो देखो
पथरीले रास्ते भी सरल लगेगें
अंधेरी रात में रोशनी मिलेगी
जुगनु भी चिराग बन रोशन होगें
तुम साथ चल कर तो देखो!!
दुनिया  साथ चलेगी झूमकर
तपती धूप भी सुहानी सुखकर
रास्ते खुद मंजिल का पता देगें
तुम हमसफर बन कर तो देखो
अपनों की भीड़ में गैर न मानो
यूं  बेकदरी से  न देखो ,सुनो!
जमाने का सताया सैलाब हूं
कुछ रहम  करके तो देखो!!
ये क्या तुम उठ कर चल दिये
मेरी तमन्ना का यकीं न किया
मैं साथी तुम्हारा हमसफर बनूंगा
एक बार यकीं करके तो देखो!!!
..किरण राजपुरोहित नितिला

गुरुवार, 9 सितंबर 2010

उसका आना .......


उसका आना .......
खुश हूं कुछ
उसका
आना सुनकर
कुछ उमंग भी है
उसका आना सुनकर
पर मन के एक कोने की टीस पर
कोई हलचल नही है
समय ने जिसे लगातार कर दिया
उसको
 क्या बहलाउं
सान्त्वना दूं?
उदासी के पीछे झांकती खुशी
खुशी  के पीछे दुबकी
उदासी
रह रह सिर उठाती
और कचोटती
 कि उसका आना
मतलब
 फिर से जाना
और फिर एक लंबा इंतजार......
        किरण राजपुरोहित नितिला 

रविवार, 5 सितंबर 2010

जमीन की ओर लौटते लोग


जमीन की ओर लौटते लोग

उखड़े थे जो

समय की मांग पर

कुछ बनने की राह

अच्छा कमा कर

सभ्य बनने के लिये

गाड़ी बंगले  के लिये

गये थे

गांव के चौंहटे से उठ कर

विकास के लिये

लिपा आंगन

 नीम निंबोली

खेजड़ी खेलरा

गूंदी गूंदे की पुकार को

अनसुनी कर

 श्वेत लोगों में

जो उन्हें केवल भारतीय ही मानते रहे

 आजकल उन्हें

सपने में देश दिखाई देने लगा है

जो कभी यहां आकर

 नाक पर रुमाल रखकर

सरकार को कोसते हुये

विदेश के गुण गाते हुये

मिनरल वाटर पीते हुये

अधर अधर रह कर

कुछ दिनों में ही भागकर वहां पहुचते

और  खुद को धन्य  मानते

आकाश में विचरते

 नीचे देखने से कतराते थे

अब जब दूसरी पीढ़ी के लिये

केवल पुराने बुढे रह गये है

अपनी समस्त उर्जा

व बुद्धि सौंप  पराई धरती को

सींच उनके देश को

बचा खुचा देने

अपने  देश को

एकाएक  ही उन्हें

देश की चिंता होने लगी है

उन्हें जमीन की याद आने लगी है

 खुश्बू खींचने लगी है

नींवें सींचने लगी

वे कहते है

कुछ करना चाहिये देश के लिये

खुद की धरा के लिये

अपनी  माटी तो अपनी ही है

इंसान लौटता तो

आखिर

जड़ों की ओर ही है!!!
---------किरण राजपुरोहित नितिला



 

शनिवार, 3 जुलाई 2010

नन्ही परी


नन्ही परी
देख तेरे आंगन आई नन्ही परी
हर तरफ से देखो
वह प्रेम से भरी,
सुनकर उसकी कोयल सी आवाज
चला आये तू उस आगाज़
जहां वह खेल रही
देख तेरे अँागन आई नन्ही परी,
वह ले जाती तुझे   
 किसी और लोक में
जब होती वह
तेरी कोख में
तेज आवाज सुन
वह दुनिया से डरी
देख तेरे आँगन
आई नन्ही परी,
रौनक वह आँचल
में लेकर आई,
पास है उसके
चंचलता की झांई
जिसके छूकर
तू हो गई हरी
देख तेरे आँगन
आई नन्ही परी ..... रुचि राजपुरोहित 'तितली'

शुक्रवार, 11 जून 2010

तुम कहते हो-----

तुम कहते हो

तुम कहते हो  इस
दिल की बात सुनो
मन कहता है होश
का खयाल रखो
 तुम कहते हो इन आंखों
में गम भूल जाउं
बूढी आंखों के पानी
को कैसे भूल जाउं?
 तुम्हारे केशों में
अपना आसमां तलाशूं
या राशन की कतारों
का हौसला रखूं
तुम्हें हमसफर बना कर
हसीं घर में खो जाउं
या भाई की तालीम
बहन का घर बसाउं
 तुम्हारे कांधे पर सर रख
कर दुनिया को भुलाउं
या इस जहां के कारवां
में  अपनी जगह बनाउं
सिर्फ मुहब्बत से जिदंगी का
इक दिन कटता नही
जिंदगी को भुला कर
मुहब्बत  कर सकता नहीं 
मेरे हाथ के फूलों को नही
खरोचों को भी थामना होगा
जिंदगी में ही नही सपनों में
भी हकीकत से सामना होगा!!
....................किरण राजपुरोहित नितिला

मंगलवार, 8 जून 2010

दोस्तों के चेहरे
अजब स्याह से है
कभी धुले
धुंधले नजर आते है
हर कोशिश
ज्वार सी उठती
हर सांस
लहर हो जाती
इक चेहरा ढूंढा
संकरी गलियों में
कभी दिखता
कभी धूप हो जाता
भटका रहा उम्मीदों में
सुकून मिला
नीम की छाया में ....
किरण राजपुरोहित नितिला

सोमवार, 24 मई 2010

होता है....................

होता है....................

वर्तमान पल भर का होता है
शेष भूत भविष्य में बंटा होता है
मनुष्य तो वह पल भर होता है
शेष इर्ष्या दुख क्रोध का पता होता है
रंग प्रसन्नता का सुहाना होता है
दुख में हर रंग गहरा काला होता है
 हर गीत की धुन लुभाती है
प्रतीक्षा घन के गान की होती है
सृष्टि का ध्रुव कोमल स्त्री  है
हर नारी का त्याग उर्मिला होता है ...

.............किरण राजपुरोहित नितिला

सोमवार, 3 मई 2010

कहना चाहती हूं

बहुत कुछ कहना चाहती हूं
जताना चाहती हूं
हवाओं से
गुलाबों से
खुश्बुओं से
जो  मन में है
कि तुम क्या हो !!!!!!!!
मेरे जीवन में ,
पर
कुछ कहना चाहूं
तो
होंठ संकोच से
सिमट कर रह जाते है
चुप सी छा जाती है
अर्थों पर
और वह चुप्पी
बयां कर देती है
जो लफ़जों  के बंधे किनारे
से बहुत अधिक
नीले आसमां तक
शून्य के चहुं ओर
फैल कर
पत्तों की
सर सर
भोर की खन खन
से भी अधिक
होती है !
तब सोचूं
तुम स्वर हो मेरे
और
मैं
तुम्हारा
मौन वर्णन !
.............किरण राजपुरोहित नितिला

शनिवार, 10 अप्रैल 2010

ये क्यूं हो गया ........



ये क्यूं हो गया ........

जी भरकर खेली भी न थी
पापा की गोदी में
लडाया ही न था मां ने
 भरपूर अपनी बांहों में!
 दादी की दुलार ने
थपका भी न था अभी
दादा ने उंगली थाम
कुछ दूर ही चलाया था!
 जीजी की छुटकी  अभी
मस्ती में उछली न थी
छोटू का दूध झपट कर
पिया न था जी भर कर!
छुटकी के खिलौनों से
कुढ़  ही तो रही थी
भैया के चिकोटी के निशां
 अभी ताजे ही तो थे,
 बाजू से  उसके मेरे दांतों
की ललाई छूटी न थी
 ठुनक ठुनक कर जिद से
रोना मनमानी में और
 खुश हो कर दादा के
गले लगती ही थी  !
सहेली की धौल याद थी
उसकी कुट्टी अभी भूली न थी
नई फ्रॉक न आने पर
 मचलना जारी ही था
उछल कर भइसा की गोद में
चढना यूं ही चल रहा था !
पड़ोस के भैया को
बहाने  खोजती थी चिढाने के
पड़ोसन चाची को डराना
चुपके से, चल ही रहा था
संतोलिया छुपाछुपी का रंग
अभी चढ़ ही रहा था
गड्डे कंचे अभी स्कर्ट की
 जेब में चिहुंक ही रहे थे !
आंगन में चहक
शुरु ही हुई थी
मां की लाड़ली  गोरैया
कहां मस्त फुदकी थी ,
महसूस ही तो न किया था
मन भर ना ही जिया था
जो अनमोल था उसे
सहज ही तो लिया था
इतना तो सोचा भी न था
और ....और..........
और ....सबकी नजरें बदल गई
नसीहतें बरसने लगी !
कुछ सीखो !
कब सीखोगी !
यहां मत जाओ !
उससे बात न करो !
इस तरह मत हंसा करो!
सब कहते संभल कर रहो !
यह मत पहनो !नजर नीची रखो !
क्यूं कि ------क्यूं कि
अब तुम बड़ी हो गई हो!!!!!!!!!
..............किरण राजपुरोहित नितिला

शनिवार, 3 अप्रैल 2010

 फिसलने का डर चलने नही देता
गिरने का डर संभलने नही देता


दंगे बंदूकों की दहशत, बारिश में
बच्चे को अब मचलने नही देता


सफेद लिबास उदास सूनी आंखें
आईना उसे  अब संवरने नही देता


 पींगें  उमंगें मन में बहुत उठती पर
खूंटा उसको  उछलने नही देता


हाथ बढाती है खुशियां अक्सर
समाज का डर संभलने नही देता .......

किरण राजपुरोहित नितिला

मंगलवार, 30 मार्च 2010

वो..................

वो...................

नही की जाती
अब प्रतीक्षा
अधीरता से
 नही रहती
 अब इंतजारी
उस मानुस की!!!!!!
 जिससे एक अनोखा रिश्ता
बन जाता था
ढेर ढेर अभिव्यक्तियां
ढोता था अपनेपन से
नवाढो से बूढी मांयें
बाबूजी के बच्चों से लेकर
बच्चों के बाबूजी तक
निहारते थे
उसका रस्ता
 उसका बस्ता
उम्मीद और इंतजारी को
परिपूर्ण करता था
बांचने को आतुर इबारतें
सुनने को  व्यग्र अजीज
 वे तकते थे उसका आना ,
 कई कई घड़ियों के
हुलसते जीवन थे
उन कागजों में
बातें
शिकायतें
प्यार .याद
बधाई शुभकामना
आना जाना
राखी रुपये,

कभी कभी
 तार लाता था
 सुनकर ही सबकी
सांसें  अटक जाती
  न जाने इसमें
 किसकी बदकिस्मती कैद  है
होनी तो खैर होती 
जब नम आंखों से तार पढता
उस तार का बोझ
कई दिन तक वह महसूसता
बूढे बाबूजी के कंधे पर हाथ रख
 उन्हें सान्त्वना देता
तब बेटा सा बन जाता वह ,
प्रीतम की चिठ्ठी बांच
 प्रियतमा की विरही भावनायें उकेरता
वह अंतरंग सखी बन जाता
भाभीसा को भाई की पाती देकर
जो ठिठोली करता
वह देवर से सकुचा जाती
 साइकिल के चंचल पेंडल पर उछलता
नटखटिया आगे बढ जाता
  भाभी नेह से निहारती रह जाती !
छुटकू का काका बन
ला देता शहर से
निब होल्डर  पुस्तक,
आले में संभाले पड़े
 पत्र
आत्मीय के साथ
डाकिये की भी स्मृति रखते
 छ दिन साइकिल की टिन टिन सुन
 एक दिन खाली सा लगता
लेकिन अब वह टिन टिन गायब है
हमारी दिनचर्या से
 अब पत्र नही लिखे जाते
पुरानी बात हो गई
अतीत हो गये
अब नही प्रतीक्षा भी
गांव भर को
देवर
 बेटा
सखी
सहारा
वह अधीरता का पिटारा
स्नेह का पात्र
वह  अंजाना जो
हर एक का  अलग ही
अजीज हो जाता था ,
अब है
झट से आते
इंतजार से रिक्त
असल व्यग्रता से दूर
जबरन ही टपके
आडंबर से भरे
उथले सतही
नकली मैसेज
जो कईयों को भेजे जाते
 एक साथ
सर्वजन सुलभ की तरह
 जानता है यह
पढने वाला भी
इसीलिये  गहरे नही उतरते
 और डिलिट हो जाते
मन से मानस और मशीन से !!!!!
...........किरण राजपुरोहित नितिला  

गुरुवार, 25 मार्च 2010

रोज सुबह होती है


   ये अंधेरे मैंने नहीं लिखे
फिर मेरे हिस्से क्यूं आये ?
हाथों की लकीरें तो मेरी थी
दूसरे की तकदीर कैसे जुड़ी ?
रेखाओं के गुत्थम गुत्था होने में उलझ गया सब कुछ
खिंचते तनते उलझते
आखिर टूट गये ,
पर चिंतित होना नहीं सीखा
ये विवशताओं की प्राचीर लांघ रही हूं
आज साफ सफफाक  हथेली
मेरा अपना अस्तित्व तलाशती है
अंखुआता एक सपना हूं मैं
नई धरा हूं
मेरे भीतर की दृढता पर पांव टिके है
बस यही दरकार है
नई इबारत लिखने को आतुर हूं मैं
उजाला तो हर सुबह चहचहाता है
अंजुरी भर बूंदें ओस की मेरे हिस्से में है
तभी तो रोज सुबह होती है!!    किरण राजपुरोहित नितिला

मंगलवार, 16 मार्च 2010

ओ! चित्रकार

ओ! चित्रकार 


रंगों संग चलने वाले
     आकृतियों में ढ़लने वाले
     भावों के साकार                             ओ! चित्रकार

सृष्टि से रंग चुराकर
     मौन को कर उजागर
     रचते हो संसार                          ओ! चित्रकार

    खिल उठते हैं वीराने
    जी जाते सोये तराने
    बजते सुर झंकार                        ओ! चित्रकार

    रंगमय हो जाते रसहीन
     सवाक् हो जोते भावभीन
     रीते को देते प्रकार                       ओ! चित्रकार

गुरुवार, 11 मार्च 2010

छू कर मेरे मन को


.......बहुत सी मुरादें ऐसी होती है जो हमारे अंदर रहती है पर हमें पता नही देती । वे शोर नही करती, बाहर नही दिखती, वे अपने होने का पता नही देती । हम उनके बारे में नही जानते इसलिए उनके पूरी होने की दुआ  भी नही करते ।

........लोग जानकारियों का खजाना है ।

........आदमी अपने आप में बहुत से सवालों का जवाब है ।

........अपना महत्तव बनाये रखने के लिये चुप रहना जरुरी होता है ।

........खुद को सन्तुष्ट  करना मुश्किल है।

सोमवार, 8 मार्च 2010

यह एक दिन

 यह एक दिन


हर वर्ष आता है
या शायद
 लाया जाता है
यह दिन ,
आंकड़ों को टटोलते हुये
कभी कहता 1000 पर 945
कभी 33 प्रतिशत
कभी 18 प्रतिशत ,
इनमें हेरफेर से
हो जाता है
क्या समाज में परिवर्तन ?
बदल तो नही जाती
मानसिकता ,
प्रकृति की प्रकृति
और कुछ कुछ नियति,
कम तो नही होती
रोज की घटनायें
प्रताड़ना
गली सड़क पर
उछलते फिकरे
बसों में हाथों की हरकतें
भीड़ में ठेलमठेल
मां से शुरु होकर
बहन तक जाती गालियां
लड़कियों की पाबंदी
बचपन से स्त्री बनने का दबाव
और नुमाइश लड़की की
कुछ लोगों के सामने
जो आखिर पुरुष बन
 तय करता है
उसका भविष्य
अपनी शर्तों पर
रिवाजों की दुहाई देकर !
सदियों की मानसिकता ही तो
 कायम रखता है ,
कितनी ही उचाईयां छूकर भी
समाज की
प्रश्नवाचक दृष्टि
वक्रता कम नही होती
वह तीक्ष्ण होकर
कसौटियों के कांटे
  और बिछाकर कहता
अब!
पार होकर
दिखाओ तो जानें!
..............किरण राजपुरोहित नितिला

शनिवार, 6 मार्च 2010

तुम!!!!!!!........



तुम!!!!!!!........


न जाने किस
स्वर लहरी पर
 तुम आये और
प्रेम का निमंत्रण बन गये !
मौन अर्थ बने
अर्थ मेरे अभिव्यक्त
अभिव्यक्ति ने परिपूर्ण किया
शब्द को और
शब्द तरंग बने
 तरंग प्रेम
 और प्रेम जीवन ;
झंकृत किये है
  तुमने  मेरे हर पल
लेकिन आशंकित हूं ..........
न लौट जाना
हवाओं की तरह
 सूरज की तरह
 दिन रात की तरह
बस व्याप्त हो जाना
चहुं ओर
जैसे प्रकाश की किरणें
जैसे प्रीत के वचन
और हवा सनसन !
सर्वेश्वर हो जाना
शून्य की तरह और
भर देना
मेरे अंतर्मन के
खालीपन को
कि मैं
आकंठ डूबी रहूं
तुम में
तुम्हारी प्रीत  में !
......................................किरण राजपुरोहित नितिला

गुरुवार, 4 मार्च 2010

नन्ही परी

नन्ही परी
देख तेरे आंगन आई नन्ही परी              
हर तरफ से देखो
वह प्रेम से भरी,
सुनकर उसकी कोयल सी आवाज
चला आये तू उस आगाज़
जहां वह खेल रही
देख तेरे अँागन आई नन्ही परी,
वह ले जाती तुझे    
 किसी और लोक में
जब होती वह
तेरी कोख में
तेज आवाज सुन
वह दुनिया से डरी
देख तेरे आँगन
आई नन्ही परी,
रौनक वह आँचल
में लेकर आई,
पास है उसके
चंचलता की झांई
जिसके छूकर
तू हो गई हरी
देख तेरे आँगन
आई नन्ही परी ..... रुचि राजपुरोहित ’तितिक्षा                

बुधवार, 3 मार्च 2010

वह समय ऐसा होगा?

  वह समय ऐसा होगा?
तब तक
 यह समय नही रहेगा
 समय बदल जायेगा
हमेशा ऐसे ही थोड़ी रहेगा !
तब बेटियों की कद्र होगी !
रिवाज बदल जायेगें !
रीतियां बदल जायेगी !
कुरीतियां तो समूल नष्ट हो जायेगी !
बहुत अधिक सम्मान दिया जायेगा
बेटे बेटियों में तनिक न फर्क रहेगा
जन्मते ही बिटिया को खौलते कड़ाह में या
अफीम न सुंघाया जायेगा
भैंाडापन छिछोरापन की तो बू  न रहेगी
हर लड़की गाजे बाजे से ब्याहेगी
उसे सांझ ढले पाउडर क्रीम थोपकर
चौखट पर खड़े हेाकर
किसी पुरुष को इशारे से
 भीतर न बुलाना पड़ेगा,
 तब पिता भाई
 बहन बेटी को बेफिक्र होकर
 कॉलेज भेज सकेगें
भीड़ में यहां वहां हाथ न धरे जायेगें
बेटियंा बोझ  न होंगी
जवान होती बेटी के पिता को
जूतियां न घिसनी पड़ेगी,

पूरा घूंघट निकाले
घर का काम निबटा
ड्योढी में बैठी चरखा कातती
औरतें उसांस लेकर
धीमे धीमे बतियाती रहती
भरी दुपहरी,
तालाब के तीर
दम भर विश्राम करती
बतियाती

हमेशा ऐसे ही नही रहेगा
हम जैसी तकलीफें
हमारी लड़कियों को नही उठानी पडे़गी
तब लड़कियां हंसते हंसते ससुराल जायेगी
दहेज के ताने नही सुनने पड़ेगें
वह युग तो कुछ और ही होगा ,
क्या   ऐसा ही है?????
...............किरण राजपुरोहित नितिला 

बुधवार, 24 फ़रवरी 2010

उसका रंग कैसे भूलूं?



हर तरफ रंग है
 हर कोई
रंग की बात कर रहा
सब रंगों से सरोबार है
रंग ही जीवन है
जीवन के लिये रंग है
पर
मेरा मन जाता उस ओर
जहां रंगों से
भरपूर खेली
लाल जोड़े में सजकर
गुलाबी रातें में निखर कर
हर रंग की खुशियां की रानी थी ,
किन्तु
अब
हाथों में रंग खोजती
 नीले आसमां में कुछ तलाशती ,
सुनहरी भोर में झुलसती
रंगमयी सांझ में तपती
रंगों का अर्थ समझकर
आज बनी है अनजान
सफेद  लिबास पहन कर !!!
 एक रंग चुना है
उसके लिये
 समाज ने
सफेद !सफेद !सफेद!
 व्याख्या कहती है
 सफेद है शांति
शांति में प्रेम
प्रेम में आनंद
आनंद में सब रंग
 और सब रस
ही है
सृष्टि का मर्म ,
पर उसका सफेद रंग
 कहता है
निर्लिप्त
वीतराग
दुख
 पलायन
इच्छाओं की हत्या
एक कोना
और उसका अंधेरा
जीवन भर
 काला गहरा!
एक जीवन
होनी के हाथों समा गया
 और
 एक जीवन
समाज लील लेने पर है उतारु
 क्या होता यदि इसके विपरीत होता !!
......................किरण राजपुरोहित नितिला

शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

कुछ मैं कहूं मुझसे ...........



 कंकड़ उछालना 
प्रकृति है उनकी
 मैं देती हूं उससे
अपनी नींवों को मजबूती !

इसी डगर पड़ सकता है
कभी लौट आना
चलते हुये भी
कांटे हटाते जाना !
 

अजाने ही सांप को
दूध पिलाते हैं
फिर भी संभले
वही सयाने है!                               

शब्दों से तो
कम ही काम लेना
मन ही में गिनकर
 गांठ बांध लेना !

तुम ही तो कहते थे
ठीक नही अविश्वास इतना
अब कहते हो
मौका देखकर झट रंग बदलना! 
.................किरण राजपुरोहित नितिला


छू कर मेरे मन को

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

छू कर मेरे मन को

.............. पक्षियों का कलरव शोर नही कहलाता क्योंकि जिस रव में अपनों से मिलने की उत्कंठा हो ,अपनों को सम्हालने का भाव हो सहयोग एवं प्रेम की उत्कठ पुकार हो वो शोर कैसे होगा।
...........पुस्तकें वे तितलियां है जो ज्ञान के पराकणें को एक मस्तिष्क से दूसरे मस्तिष्क तक ले जाती है।
............इस दुनिया में कुत्ता ही एक मात्र प्राणी है जो हमें स्वयं से अधिक प्यार करता है।

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

ईर्ष्या

ईर्ष्या


ईर्ष्या एक सहज भावना है और ईर्ष्यालु होना भी समान्य सी बात है लेकिन
एक ईर्ष्या होती है जो सफल लोगों के मूल्य अपनाकर हमें उनकी तरह बनने के लिए प्रेरित करती है ।यह ईर्ष्या का रचनात्मक पक्ष है जो किसी भी संस्कृति के विकास में संलग्न रचनात्मक लोगों केा आग बढने के लिए प्रेरित करता है।
ईर्ष्या की दूसरी किस्म नकारात्मक ईर्ष्या है जिसमें लोग दूसरों की सफलता से कुढते है और उनके खिलाफ नफरत से भरकर नकारात्मक कार्रवाई करने लगते है। ये नुकसानदेह होती है
अत यह जरुरी है कि न सिर्फ खुद दूसरों के प्रति ईर्ष्या करने से बचें बल्कि खुद को दूसरों की ईर्ष्या से सुरक्षित रखना भी सीखें। तब तक ईर्ष्या अपने रास्ते में रोड़ा नही अटकाती तब तक सब ठीक है लेकिन जब दूसरे हमारे खिलाफ अफवाहें फैलाएं हमारी सफलता को कम करने का प्रयास करे या कामयाबी की राह में रोड़े अटकानें लगें तो हम क्या करेगें?
तो उसके पास जाकर उसकी शुभकामनाएं लीजिये। उन्हें इसका एहसास कराइए कि हम उनके अधिकार क्षेत्र का हरण नही कर रहे है। अगर यह पैंतरा कामयाब न होतेा याद रखें कि उनके विरोध के कारण आपकी छवि निखरती जाती है । हिटलर ने यहूदियों का जबर्दस्त विरोध करके उनकी पहचान को मजबूत कर दिया। अनजानें मंे ही उसने उनकी पहचान को एक निश्चित स्वरुप दे दिया।
विरोधी से जूझने का एक तरीका यह है कि कोई प्रतिक्रया ही न की जाए। बेहतर होगा कि हम सामने वाले से बदला लेने की बजाय खुद को और अधिक मजबूत बनाएं। बदला लेने मंे हमारा वक्त जाएगा। ताकत कम होगी और तनाव बढेगा। दूसरों की ईर्ष्या से निपटने के लिए सबसे अहम बात यह जानना है कि ईर्ष्यालु व्यक्ति हमारे विचारो को खारिज करने के लिए कौनसे कदम उठाएगा। घाघ सबसे पहले तो हमारे विचारों की उपेक्षा करेगा। अगर उपेक्षा से वा खत्म हो गए तो ठीक है वरना वह हमारी बुराई करना शुरु कर देगा। अगर बुराई से भी काम नही चला तो फिर घाघ के पास उसे हमें अपनाने के अलावा कोई चारा नही रह जाता । अत जब भी हमारे किसी विचार की उपेक्षा की जाए उसे बीच में ही छेाड़ने की गलती कभी न करे। जिस समय उसकी बुराई हो तो हम प्रतिक्रया न करें क्योंकि हमारी रचनात्मकता को वांछित सम्मान जरुर मिलेगा । साथ ही अपनी दौलत और जीवनशैली के बारे में अपने से कमजोर लोगों की बीच श्ेाखी बघार कर ईर्ष्या पैदा करने की गलती न करंे। इसकी बजाय ईर्ष्यालु आदमी के सामने अपनी मुश्किलों की बात करके उसकी ईर्ष्या को कम करने की कोशिश करनी चाहिये। ..............अहा! जिंदगी से

बुधवार, 10 फ़रवरी 2010

नम आँखें

नम आँखें
बोझिल  नम आँखें
तलाश रही आशियाना,
ढूँढ -ढूँढ कर हैरान
जहां देखूँ
अनजाना आसमान,
ओस की बूँदों में
छिप-छिप कर हवायें
तेज हिलोरे दे रही
बरसात यूँ नहला  रही
धूप  यूँ सूखा रही,
पर रिमझिम से चमक रहे
रात के अंधियारे में
मेरी आशाओं के जुगनू
....रुचि राजपुरोहित तितिक्षा           

सोमवार, 8 फ़रवरी 2010

ओ मेरी सखी !!!!!



लड़कपन की स्मृति
स्नेहिल पुस्तक !
लिखे थे -जो
निष्कपट
निष्कलुष  स्नेह के पृष्ठ
हमने
उन पृष्ठों में
 बांचती हूं आज भी
दो रिबन फूलों वाली चोटियां
वो नीली स्कर्ट
घेर घूमेर होती !
बांचती हूं
वो भोली पर सरस बातें
 वो हंसी ठिठोली
जो शाला के बाद भी
गुदगुदाती थी ,
मुहल्ले की सखियों में भी
 जानी पहचानी थी
तुम सखी!
बातों की डोर से
वो भी बंध गई थी
तुमसे सखी,
पर
भीगती  है आंखें
उस पृष्ठ पर आकर
जब मेरी भूल
अपने माथे ले खड़ी हुई थी
धूप में
पूरे दिन !!!
 कुछ भी कहने न दिया
बस सहती रही सजा
सखी का कष्ट
असहय जो था तुम्हें ,
और मैं ?
मैं आज तक
 अपराध बोधित सी
वह पृष्ठ
रोज बांचती हूं
कटघरे में खड़ी हूं
आज भी !
सोचती हूं
क्यूं मूक दर्शक बनी रही ,
सखी!
 तुम्हारे  नेह से अभिभूत हूं
आज तक,
भीगा रहता है
मेरा मन
आज भी
--------किरण राजपुरोहित नितिला

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010

कविता

किया जाये......

जाते हुये को
एक मुस्कुराहट से
विदा किया जाये जो
कहा सुना
उसे  माफ किया जाये ,
बीती कड़वी बातों  को
उड़ाकर
मीठी बातों को दिल से
लगाकर
जाते हुये को
थोड़ा रोक लिया जाये
 जो खता गुनाह हो
माफ किया जाये ,
सभी दोस्त वापिस मिले
जरुरी नही
 मन में फिर ऐसा गुल खिले
जरुरी नही
दोस्तों को रिश्तों में
न बांधा जाये
जो शिकायत हो
भुला दी जाये,
दिल की हर गांठ
जुबां पर
नही लाई जाती
गुस्ताखियां तो
अनचाहे ही हो जाती
 हर कूसूर को
दिल पर न लगाया जाये ,
जो नाराजगियां है
सफा की  जाये!!!
..............किरण राजपुरोहित नितिला

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

छूकर मेरे मन को----------


 पुरुष  अथाह  पानी को रोके खड़े बांध की तरह  अपने दुखों को खुद में समाये रहता है । आसानी से न तो अपने भीतर किसी को झांकने देता है न ही दूसरे पुरुष का आसानी से आत्मीय बन पाता है परन्तु स्त्री की प्रकृति नाले के बंध की तरह होती है । तनिक प्रवाह  से तट टूट जाते हैं। यही कारण है कि स्त्रियां पुरुषों की तुलना में अधिक जल्दी आत्मीय बन जाती है और दूसरे को आसानी से आत्मीय बना भी लेती है। इसी में स्त्रियों की सहनशीलता व लंबी आयु का राज छुपा है।

बुधवार, 3 फ़रवरी 2010

ऐसा भी होगा..............


ऐसा भी होगा..............
जिदंगी इतनी आसान
न होगी
हर मोड़ पर
 कसौटियां होगी ,
उम्मीद से पहले
सोचना होगा
रिश्तों में कुछ
 खामियां होगी ,
बहुत मुश्किल है
सब को खुश रखना
कहीं न कहीं
नाराजगियंा होगी,
मुस्कुराहट
हरदम साथ न होगी
कभी साथी
 सिसकियां  होगी,
किनारा ही न
मिलेगा सदा
मझधार में किश्तिया  होगी

..........किरण राजपुरोहित नितिला

सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

कविता

इक यह करना!!!

स्मृतियों को बस जिंदा रखना
अतीत से एक रिश्ता रखना

कितनी भी दूर चले जाओ
मिलने की एक जगह रखना

जीवन जायका कम न होगा
दिल में मीठी याद रखना

नन्हे नादान की भोली जिद
और बुजुर्गों की बात रखना

.........किरण राजपुरोहित नितिला

रविवार, 31 जनवरी 2010

इक खयाल......

नहीं छूटता
कभी भी
नहीं भूलता
कही भी
इक खयाल!
जो चांदनी  की
चादर की तरह
पसर गया है
मेरे मन मानस में
और बाहुपाश सा
 नर्म गर्म
महकाता रहता है
मेरा ओर छोर
 और गनगुनाती है
दिशा
एक मोहक धुन
 सुनो!
तुम भी!..........किरण राजपुरोहित नितिला

कविता


इक पल.......
इक नन्हा सा पल
 हो ,जो खोल दे
नये द्वार
नया राग
 इक मिठास के साथ
 जो घुलती रहे उम्र भर
 सहज मित्रों में
और
 दिप दिप रोशन होता रहे
मन आंगन
मह मह महकता रहे
मानसाकाश
स्वच्छता की धूप
खिल खिल कर
खोल दे
 विचारों के नये सोपान
...............किरण राजपुरोहित   नितिला

शनिवार, 30 जनवरी 2010

कविता


जब सच्चाई देखी  

टूटे सारे भ्रम जब सच्चाई देखी
उथले पानी की गहराई देखी


व्यर्थ बातों के पहाडखड़े है  
हवाओं की हाथापाई देखी 


सोचने को मजबूर हुये जब
सज्जनों की जग हंसाई देखी


माजरा सब समझ आया जब
आवारों की पीठ थपथपाई देखी


इतिहास की आह निकल गई
जब हिन्दु मुस्लिम लड़ाई देखी


........किरण राजपुरोहित नितिला

मंगलवार, 26 जनवरी 2010

कविता




पिताजी!!!!!!
            
देखकर आपको!
 पनिया गई आंखें
रुंध गया गला ,
आज
 पैाळ तक पहंचने से पहले
 नहीं सुनाई दी
वो दबंग
स्नेहसिक्त आवाज
आओ बेटाजी बाईसा !
कहकर उतावले
लेकिन दृढ कदमों से
खिंचे आते
और एक हाथ मेरे सिर रख
घड़ों आशीष देते
उस रुप की प्रतीक्षा में
टकरा गई
पुरानी खाट से ,
 जहां धंसा था हड्डियों का ढांचा
 जैसे तैसे ऐनक लगा
बेटा जी बाईसा को
 पहचाना
किन्तु भरसक प्रयास करके भी
 हाथ  न
उठ सके मेरे सिर तक
आशीश के लिए
और बुदबुदाते रहे होंठ
कुछ अस्फुट सा!
आशीष था
या अपनी व्यथा?
जानती हूं कि
 पिता हर रुप में
आर्शीवाद ही होते है,
और
कंापते रहे थे वे हाथ
जो थामे थे वंश वृक्ष केा
बलिष्ठ  भुजायें उठ न सकी
जिनमें हम निश्चिंत हो झूले
झंझावतों से बेखबर
और निस्संग उंघा बचपन
अपनों का ही नही
गांव के दर्द को सहारा था,
वे आंखें जो
थर्रा देती थी
खड़े खडे़ ही आफतियों केा
धेाती की कलफ
लाठी की कड़क
और गर्जना भरी हुंकार
मान थी गांव का
 भटकों की पगडंडी
दुखियों के धीर
वो घनी छांव
आज
क्यूं सिमट कर रह गई
एक ढांचा मोहताज सा!
............किरण राजपुरोहित नितिला

कविता



उसको .........

दनादन गोलियां बरसाते
बम फंेकते
याद नही आती उन्हें
अपने पिता की
 मां की
जवानों का सीना छलनी करते
 याद नही आती उन्हंे
अपनी प्रियतमा की?
जो उसकी बलिष्ठ छाती पर सिर रख
सारी दुनिया में
खुद केा महफूज समझती है
 सपने देखती है
अपने भीतर प्रेम के अंकुर सहेजती है
और वह मुग्ध निहारता तनमन, जीवन जीता है
खून से सरोबार सीना ,
सपने में देख वह !
खुदा से खैर न मांगती होगी उसकी,
किसी के इंतजार को अंतहीन बना  कर
वह
पत्नि के पास खुषी से लैाट जाता है
विजयी का दंभ भरकर
 वह वैसा ही स्वागत  कर पाती होगी?
या  उस जवान की पत्नि को
अपने भीतर ही कलपता  महसूस कर
उदास होती होगी !
जहां वह
 थका मांदा पहंुच कर दम भरता है
चैन से उंघ लेता है
नई स्फूर्ति के लिये
मां दहलीज पर खड़ी
उसकी राह देख रही होती
 और वह
दूर से ही अपना हाथ
लहराता
उड़ता सा आता
 एक के बाद एक
स्वजन की खैरियत पूछ कर
  सुख की सांस लेता होगा
रसोई से उठती खुष्बू से
मन हरा होता हेागा
तब ??
तब ???
क्या  याद न आते होंगें वे घर
जहां वह अभी अभी बम रख कर आ रहा है !!!!!!
...............किरण राजपुरोहित नितिला

गुरुवार, 21 जनवरी 2010

कहानी

नीड़ में नई चहक
  गालों पर नमी का अहसास हुआ। जाने कब  से नम हुई आँखें बरस गई। पीछे से पदचाप आती हुई सुनाई पडी़ झटपट आँखें पोंछी और नाश्ता परोसने लगी। नम्रता ने अंदाज लगाया कि यतीश रसोई के द्वार पर कुछ क्षण खड़े रह कर पलट गये। जानते हैं कि अब उसका आँसुओं से तर चेहरा दिखेगा और उनकी भी आँखें भर आयेंगी। बड़ी मुश्किल से कुछ महीनों बाद इन दिनेंा की सुबह की ताजगी को वाकई में ताजा मान कर महसूस करने में जुटे है। इस सिलसिले में रुकावट कुछ अच्छी सिद्ध न होगी।
कुछ क्षणों बाद  बलात् ही सहज हुई वाण्ी सुनाई दी ‘‘अरे! नाश्ता लाओ भई! देर हो रही है।’’
नम्रता ने नाश्ता ट्रे में रखा। कुछ क्षण ठिठक कर अपने उदास चेहरे पर सहजता लाते हुये चली और बोली
’’अच्छा जी! नाश्ता कबसे तैयार ही है। आप ही देर से तैयार हुये और इल्जाम मेरे सिर!‘‘
   खुश होने का आवरण ओढ़े यतीश को विदा किया। दरवाजे से पलट कर बरतन समेटने लगी। दही की प्याली पर नजर पड़ी। तो वहीं ठहर गई और आँखों में पानी भर आया। दही और शक्कर पिता-पुत्रों की एक सी पसंद। तीनों को ही हर मौसम में दही के साथ शक्कर या मिश्री चाहिये। इसके बिना खाना पूरा नहीं होता। कई दिनों तक तो आदत के अनुसार तीन प्यालियों में ही दही परोसती रही थी। लेकिन अब उनको मनपसंद गाढ़ा दही कहाँ मिलता होगा? बाहर का बेस्वाद और नीरस खाना कैसे खा पाते होगें बच्चे? फिर आसुओं की धारा बह चली तो वहीं सिर पकड़ बैठ गई। चक्कर का एक जोरदार झन्नाटा आया। हाथ पाँव ठंडे पड़ गये। बमुश्किल ही बिस्तर तक पहुँची। गद्दे के पास रखी तस्वीर से ही हाथ टकराया। तस्वीर को उठा कर देखा लेकिन पनियाई दृष्टि कुछ न देख सकी फिर भी नम्रता जानती है इस फोटो में तीनों पिता-पुत्र किसी बात पर जोरदार ठहाका लगा रहे हैं। भरपूर संतुष्टि और प्रसन्नता के फूल झर रहे हो जैसे। बीते मुछ महीनों में हजारों बार इस तस्वीर को देखा है। अचानक दराज खींचने की आवाज सुन कर आँखें पोंछी तो देखा यतीश गाड़ी की चाबी निकाल कर मुड़कर जा रहे हैं। न उसने ही कुछ पूछा, न उन्होंने। मौन में ही संपे्रषण हो चुका। अगर बात होती तो भी कुछ ऐसे ही हेाती सदैव की तरह।
 ’’ये क्या नम्रता ......तुम फिर रो रही हो? मत रेाओ। क्यूँ अपना स्वास्थ्य बिगाड़ रही हो। बच्चे होस्टल में ही तो गये है केाई सात समुन्दर पार नहीं। वो भी अपनी पढ़ाई के लिये फिर क्यूँ इतना रोती हो बोलो?’’ बहुत दुलार से पूछते।
‘‘.....................’’
‘‘याद आती है....? मैं मानता हूँ.मुझे नही आती क्या........?मैं भी तो........’’ इससे आगे यतीश भी नहीं बोल पाते। उसको सीने से लगा खुद भी रो पड़ते। जीवन में बड़ी से बड़ी विपदाओं में भी हँसते रहने वाले जीवटता के धनी यतीश की आँखों में आँसू देख जैसे वह स्वप्न से जाग पड़ती। उनके आँसू भला  नम्रता कैसे देख सकती है? झट सहज होकर हँसते हुये फाटक तक ठेल कर विदा कर आती। चेहरे पर मुस्कुराहट लाकर  नम्रता के गाल थपथपाकर कहते ‘‘परेशान न हो, बच्चे अपना
नया आसमाँ  तलाश  कर रहे हैं। उन्हें पीछे से आवाज न दो। एक दो दिन फोन मत करना।  उन्हें हॅास्टल के जीवन में ढ़लने दो‘‘।
  कई दिनों तक ऐसा चलने के बाद अब यतीश ने उसको  शांत करने का उपक्रम छोड़  दिया। शायद समझा-समझा कर थक गये। फोन कर के भी क्या होगा? उधर बेटे रुँधे गले से बात करेगें इधर वह खुद भी। खाने-पीने, पढ़ाई का ध्यान रखने के दो चार जुमले मुश्किल से बोल पायेगी। बच्चे भी कहेगें माँ! हमारी चिंता मत करना । आप दोनों
अपना खयाल रखना। स्नेहसिक्त उन मिश्री घोलते संवादों के बीच में दोनों ओर में से एक तरफ से एकाएक फोन रख दिया जायेगा। भर्राए स्वर में केाई भी अधिक न बोल पाता। उस के बाद नम्रता को बच्चों की याद के साथ-साथ एक चिंता और बढ़ जाती कि बच्चे उस अनजाने माहौल में अभी तक रचे-बसे नहीं है। यह बात अधिक  पीड़ा देती।
 उदास सी वह उठी  और काम में जी लगाने की कोशिश करने लगी। काम भी क्या है अब? घर जमा जमाया ही रहता। कई-कइ दिन टीवी तक चलाने की नौबत नही आती। जब मन ही उदास हो तो मनेारजंन के तमाम साधन बोझिल लगने लगते हैं। बिखेरा करने वाला है ही कौन? बच्चे यहाँ थे तब सुबह से शाम चकरघिन्नी सी घूमती रहती थी। सबकी फरमाइशें पूरी करने में ही जुटी रहती। दोपहर को स्कूल से घर आने के बाद घर को तो जैसे सिर पर ही उठा लेते। शाम तक लगभग सारी चीजें जमीन पर लेटी मिलती। बच्चों के पापा तो बच्चों से दो कदम आगे रहकर उन से भी छोटे बन जाते। घर को भी खेल का मैदान बना देते।  बीच-बीच में जूस -चाय, शिकंजंी की फरमाइशें चलती रहती। साथ में एक-दो दोस्त भी आ जुटते। फिर तो क्या कहना! भुनभुनाते हुये वह जब अस्त -व्यस्त सामान समेटने लगती तो उसका पारा चढ़ा जान तीनों ही सयाने बन कर मदद करने लगते। उनके भोले - भाले  निश्छल चेहरे देख नम्रता की तमतमाहट न जाने कहाँ छुप जाती। माँ! ये....माँ! वो... करते-करते स्कूल की, बाहर की कई बातें करते जाते। छोटे को तो अब तक उसकी गोद में ही सिर रख कर लेटना अच्छा लगता। फिर तो बड़ा भी जिद करता। आखिर नम्रता पालथी लगा कर बैठती । दोनों को ही सिर रखने की जगह देती फिर भी गोद में ज्यादा जगह को लेकर नोंक-झोंक चलती ही रहती।
भारी मन से वह उठी। सोचा कुछ जी बहलाये लेकिन कहाँ...........? घर के कण-कण में बेटों की याद, उनकी आवाजें, उनके भोले चेहरे समाये है जो आँखों से हटने का नाम ही नहीं लेते। हटे भी कैसे? पिछले सोलह सालों से उसकी दुनिया उसके दोनों बेटों के इर्द-गिर्द सिमटी थी। इन वर्षों में एक भी पल उन दोनों के बिना नहीं गुजारा और अब एक दम से ही दोनों दूसरे शहर चले गये। एक दिन के नहीं बल्कि कुछ वर्षों के लिये,जब तक कि पढ़ाई  पूरी नहीं हो जाती।
 लंबी उसांस  खींच कर रह गई। इन्ही जंजालों में डूबते-उतराते न जाने कब नींद आ गई। धीरे-धीरे पलकों में सपना उघड़ने लगा। दोनों बेटे साथ-साथ एक दूसरे का हाथ थामे हुये धुंधलके में सहमे हुये चले जा रहे हैं। भयग्रस्त  नजरों से इधर-उधर देख रहे हैं, किसी को ढँूढते से ..........झटके से जागी
नम्रता। उठ कर बैठ गई। यतीश घर आ गये थे और शायद उसे सोया जान खुद ही चाय बना रहे थे। उसे बैठा देख हाथ में थामे कुछ लाये।
     ‘‘देखो मैं क्या लाया हूँ।’’चहकते हुये यतीश बोले। चैंक कर देखा तो पाया कि एक हाथ में ब्रश,रंग और दूसरी हाथ में कैनवास थामे है और उस के देखते ही
एक हाथ अपने सीने पर रख कर झुक कर अभिनय जैसा सलाम  किया। वह खिलखिलला कर हँस पड़ी ।
 ‘‘चलिये मुझे जोकर की तरह देखकर ही सही बादलों में छुपी रोशनी की किरण नजर तो आई।’’ कहते -कहते बड़ी अदा से यतीश ने उसके पैरों के पास हाथ का सामान रखा और  घुटनों के बल बैठ गये।
 ‘‘बस तुम आज से ही पेंटिग शुरु कर दो। तुम कहती थी ना शादी से पहले पेंटिंग का शौक था लेकिन बाद में छूट गया। क्यूँ नहीं अब ही इस शौक को पूरा कर लो। समय का सदुपयोग हो जायेगा। तुम्हें छोटे बच्चों की तस्वीरें खास पसंद है ना तो सबसे पहले
नन्हे मुन्ने का पोट्रेट बनाना।‘‘ उसने ब्रश को छुआ और टकटकी बाँध कर देखने लगी। कुछ क्षण निस्तब्धता छाई रही। यतीश उसकी मुद्रा  चिंतातुर से देखने लगे जैसे अब क्या कहने वाली है।
कुछ क्षण बाद नम्रता ने ब्रशों को नीचे रखा और धीरे-धीरे चलकर मेज तक पहुँची ,वहाँ पड़ी तस्वीर उठाई जिसमें दोनों बेटे चैन से सोये हैं। छोटा छः महीने का ,बड़ा तीन साल का था तब यह निस्संग नींद का क्षण उसने कैमरे में ही नहीं स्मृति में भी संजो लिया था। सच! कितना शौक था उसे अपने बच्चों के पल-पल बदलते रुप, उनकी चपल मुदा्रओं को कैद करने का। काफी कुछ उसने अपना यह शौक पूरा भी किया। उन यादगार स्मृतियों को हमेशा यादों में भी जीया है और फोटो के रुप मेें भी । जब-तब एलबम का जखीरा ले बैठती है। सचमुच दिन तो जैसे पंख लगाये आते हैं और फुर्रर हो जाते हैं। आज कहाँ वे दिन?
लंबी साँस भरकर बोली ‘‘नहीं यतीश अब ये नहीं होगा। पहले मनःस्थिति और थी अब तो मेरा चित्त ही ठिकाने नहीं है तो भाव क्या उकेर पाउँगी। बेजान हाथों से चित्रों में खिलखिलाहट नहीे डाली जा सकती।’’
‘‘ लेकिन कोशिश तो.......’’
‘‘नहीं यतीश ....भगवान के लिये... दबाव न डालो।’’
‘‘लेकिन ऐसे कब तक चलेगा। तुम्हारे मन की स्थिति बिमारी के रुप में उभरने लगी है और समय के साथ बढ़ेगी  ही कम नहीं होगी। नम्रता सच के साथ सामंजस्य बिठाओ। बच्चे दो-चार दिनों के लिये नहीं गये हैं समझने की कोशिश करो। उन्होंने नया रास्ता तलाशा है जो तुम्हारी गोद तक वापिस नहीं आयेगा। पढ़ाई पूरी करेगें, कल नौकरी लगेगी ,शादियाँ होगी । उनका भी परिवार होगा।जहाँ काम होगा वहीं रहना भी पड़ेगा। तुम ये माने बैठी हो कि वापिस यहीं लौट कर आयेगें। ऐसा नहीं होगा !! तुम्हारे कारण मैं भी तनाव में रहने लगा हूँ।’’ कहकर  यतीश ने अविचलित खड़ी नम्रता को झिंझोड़ा।
 ‘‘घर की खुशियाँ तो जैसे कहीं खो सी गई है। हरदम उदासी का वातावरण अच्छा नहीं है। नम्रता समझने की कोशिश करो।’’
‘‘ लेकिन मेरा बच्चों से दूर रहना बहुत मुश्किल है।’’
कुछ दिनों बाद यतीश ने उससे कुछ कागजों पर दस्तखत कराये। उसके बहुत पूछने पर भी कुछ न बताया बस केवल मुस्कुराते रहे।
   एक शाम को एकाएक ही किसी बहुत छोटे बच्चे के रोने की आवाज कानों में पड़ी। ऐसा लग रहा था जैसे बहुत ही पास से आवाज आ रही है। पल भर में ही आवाज की दिशा में लपक पड़ी। दरवाजा खोला तो सामने कोई न था।
आवाज वाला प्राणी धरती हाथ पाँव पटक-पटक कर रो रहा था।  अनायास ही रोते शिशु को गोद में उठा लिया। और उसे जैसे इसी गोद का इंतजार था। वह चुप हो गया। लेकिन नम्रता की आँखों में खुशियों की धार थी। उसे लगा जैसे उसका बेटा ही
खिलौने का रुप धर कर आ गया। अब उसने देखा कि गुलाबी फ्राॅक में लिपटी वह नन्हीं गुड़िया है। भोले से मुखड़े को  बेतहाशा चूम कर उसे गले से  लगा लिया।
‘‘ अपनी ममता को थोड़ा विश्राम दो ......और ये लो।’’यतीश चहकते हुये अवतरित हुये।
‘‘ अ.....आप....ये.....ये..गुड़ि़या क...कौन है और ये क्या है?’’
‘‘.................’’
‘‘आप निश्चिंत हैं इसका मतलब आप इसे जानते हैं
‘‘ये.....ये.....हूँऽ ऽ ऽये चीया है। क्यों चीया नाम ठीक है ना अपनी बेटी का? और ये हमारी बेटी के खिलौने है।’’
‘‘ह.....ह.....हमारी गुड़िया .....हमारी चीया?’’

‘‘ हाँ ..हाँ हमारी । तुम अक्सर कहा करती थी ना कि हमें अपने बच्चों के लिये ही नही दूसरों के बच्चों के लिये भी कुछ करना चाहिये। पहले तो हमें फुर्सत नही थी सोचा अब भी क्या देर हुई है। अब तो पूरा ध्यान दे सकेगें।’’
‘‘तो ....तो वो कागज.....उस...दिन’’
‘‘ हाँ हम कानूनी तौर पर भी इसे अपनी बेटी कह सकते हैं। और तो और हमारे बेटे भी छोटी बहन का आना सुनकर बहुत खुश है।’’
‘‘ सच यतीश मन पढ़ना कोई तुमसे सीखे। मैं भी ऐसा ही कुछ चाहती थी।’’
   और नीड़ में नई चहक ने जैसे अंजुरी भर - भर खुशियाँ बिखरा दी।

                               ----किरणराजपुरोहित‘नितिला’              
              







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मंगलवार, 12 जनवरी 2010

My Photography


   ये मस्त मस्तानी शाम
और  सर्द पेय            



कविता

कहां हो ...............         
  सकल
सुयोगों और दुर्योगों को
 पार कर
जब !
जीवन इस पथ से
 गुजर रहा है
 न जाने क्यूं .........?
बचपन फिर अंखुआने लगा है
फिर  ठुनकने लगा है
भोली जिदें
जिन पर वारि जाती थी वो
वो!!!!!!!!!
 आज कहां है....
 दुआ करती रही
मेरी कामयाबी की
हर घड़ी,
मैं ध्यान न दे पाया
कभी
जब वो उम्मीद से देखती
मैं व्यस्तता की आड़
लिये रहा
और तुम नजरों की ओट से
हरदम आषीशती रही
लेकिन
आज.......
 मैं
साक्षात् देखना चाहता हूं
तेा
वो अब कहां है ????

तुम्हारे लिये
कुछ कर
तमाम क्षुब्धता केा धो देना चाहता हूं
लेकिन
तुम नही हो
  तुम कही नही हो
मां !!!!!!! तुम कहीं नही हो
...............किरण राजपुरोहित नितिला

सोमवार, 11 जनवरी 2010

कविता



 आज फिर
तुमने कहा
तुम्हारी याद आई ..
मुझे वह बेला याद आई
जब
 तुम्हें मैं देना चाहती थी
 वह अधिकार
पर
तुम बगलंे झांकते
 किसी में कुछ ढूंढ रहे थे
और
मैं...........
तुममें अपनी ख्वाहिशें
हर डगर फिर तुम
 सहारा मांगते
 मैं पिघल कर
अपनी सार्थकता पर इतराती
लेकिन
कब तक........
 अब मुझे भी थामना है
 उसे
अपने ठगे जाने पर
बुरी तरह क्षुब्ध हूं
लेकिन तुम्हारे माथे पर
मेरे दुख की रेखा तक नही!!!!!!!!
.............किरण राजपुरोहित नितिला

बुधवार, 6 जनवरी 2010



सोच ( लघु कथा)
‘‘आइये आइये!श्रीमती शर्मा,बहुत दिनों बाद दिखाई दी।कहिए क्या हालचाल है,बिटिया का रिश्ता तय हुआ कहीं?’’
‘‘अरे कहां....आप तो जानती ही हैं अच्छे लड़के आजकल कहाँ मिलते हैं?कहीं घर में कमी,कहीं लडके में कमी। नाजों पली बेटी है,हर कहीं तो नहीं दे सकते ना ।’’
‘‘ लेकिन पिछले दिनों मैंने जो लड़का बताया उसका क्या हुआ? बढ़िया नौकरी,सुंदर लड़का,भरा पूरा घर,मां- बाप बहन भाई सब कुछ तो....’’
’’ना बाबा न,कहाँ माँ- बाप ,भाई- बहन के बड़े परिवार में झोंक दूं बेटी को? मैं तो ऐसा लड़का ढूंढ रही हूं जिसके परिवार की कोई जिम्मेदारी न हो,अच्छी नौकरी हो। अपना कमाए,अपना खाए और बिटिया को फूल सी रखे,बस। ये भाई बहिन ,सास ससुर की सेवा मेरी बेटी से नहीं होने वाली। अरे!उनके खेलने खाने के दिन है न कि झंझट में पड़ने के.....’’
‘‘लेकिन हर लड़के के मँा बाप,परिवार सब कुछ तो तो होगा ही।वो भी तो अपने बेटे बहू से आस लगाए होंगे ना ।’’
‘‘अरे !नहीं ,बिटिया प्रथम श्रेणी एम बी ए है,सिर पर पल्ला ओढे़ सबकी चाकरी नहीं करने वाली। आजाद खयाल की लड़की है, जिंदगी बेरोकटोक गुजारना चाहती है।..’’
‘‘खैर.. आपके बेटे की भी तो नौकरी लग चुकी है।उसकी शादी कब करने का विचार है?’’
‘‘अरे अच्छी लडकी मिल जाए तो आज ही शहनाई बजवा दूँ । मुझे तो पढ़ी लिखी ,अच्छे संस्कारो वाली, सीधी सादी बहू चाहिए जो आते ही घर संभाल ले अैर मुझे घर के कामों से छुट्टी दे दे बस। आप तो जानती ही हैै आजकल की लड़कियां घर के काम तो करना ही नहीं चाहती। आते ही पति पर न जाने क्या मंत्र फूंकती है कि बेटा तो समझो गया हाथ से ।एक ही तो बेटा है हमारा ।सारी पँूजी लगाकर पढ़ाया है। बहुत कुछ सोच रखा है हमने अपने बेटे बहू से हमारे भविष्य के लिए।’’ ‘‘....!!!!!???’’..............................................किरण राजपुराेिहत नितिला

शुक्रवार, 1 जनवरी 2010

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