मुड़े हैं जिंदगियों के पन्ने
वक्त उन्हें उधेड़ता बुनता रहा
दंगाइयों के कहकहे सुन कर
जमीं का बदन हरहराता रहा
क्यूं है क्या है कौन है??
प्रष्न सदैव पूछते रहे
थका सा सूरज उगा लज्जित सा
और दोपहर तिलमिलाती है
आस्था के आंगन में
तुच्छ रोषनी झिलमिलाती है
यादों के पिछवाड़े में सदा
मोरमन मौन कूकते रहे
किलकारी ही कत्ल न हो
मां हर पल मन्नत यही मांगती
जवानियों के ज्वार न भटके
आषीशें हर रात जागती
बदलेगा इंसान यद
िविष्वास ये गूंजते रहे!!! ----किरण राजपुरोहित नितिला
2 टिप्पणियां:
मुड़े हैं जिंदगियों के पन्ने
वक्त उन्हें उधेड़ता बुनता रहा
शुरू से ही भावनाओं पर शब्दों की गिरफ्त
सुंदर है
bhutt khoobsurat.
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