सोमवार, 8 फ़रवरी 2010
ओ मेरी सखी !!!!!
लड़कपन की स्मृति
स्नेहिल पुस्तक !
लिखे थे -जो
निष्कपट
निष्कलुष स्नेह के पृष्ठ
हमने
उन पृष्ठों में
बांचती हूं आज भी
दो रिबन फूलों वाली चोटियां
वो नीली स्कर्ट
घेर घूमेर होती !
बांचती हूं
वो भोली पर सरस बातें
वो हंसी ठिठोली
जो शाला के बाद भी
गुदगुदाती थी ,
मुहल्ले की सखियों में भी
जानी पहचानी थी
तुम सखी!
बातों की डोर से
वो भी बंध गई थी
तुमसे सखी,
पर
भीगती है आंखें
उस पृष्ठ पर आकर
जब मेरी भूल
अपने माथे ले खड़ी हुई थी
धूप में
पूरे दिन !!!
कुछ भी कहने न दिया
बस सहती रही सजा
सखी का कष्ट
असहय जो था तुम्हें ,
और मैं ?
मैं आज तक
अपराध बोधित सी
वह पृष्ठ
रोज बांचती हूं
कटघरे में खड़ी हूं
आज भी !
सोचती हूं
क्यूं मूक दर्शक बनी रही ,
सखी!
तुम्हारे नेह से अभिभूत हूं
आज तक,
भीगा रहता है
मेरा मन
आज भी
--------किरण राजपुरोहित नितिला
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1 टिप्पणी:
तुम्हारे नेह से अभिभूत हूं
आज तक,
भीगा रहता है
मेरा मन
आज भी
भावनात्मक लगाव/अपराध बोध का सुंदर चित्रण
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