कंकड़ उछालना
प्रकृति है उनकी
मैं देती हूं उससे
अपनी नींवों को मजबूती !
इसी डगर पड़ सकता है
कभी लौट आना
चलते हुये भी
कांटे हटाते जाना !
अजाने ही सांप को
दूध पिलाते हैं
फिर भी संभले
वही सयाने है!
शब्दों से तो
कम ही काम लेना
मन ही में गिनकर
गांठ बांध लेना !
तुम ही तो कहते थे
ठीक नही अविश्वास इतना
अब कहते हो
मौका देखकर झट रंग बदलना!
.................किरण राजपुरोहित नितिला
छू कर मेरे मन को
2 टिप्पणियां:
शब्दों के साथ चित्र भी सुन्दर हैं.
कंकड़ उछालना
प्रकृति है उनकी
मैं देती हूं उससे
अपनी नींवों को मजबूती !
Lajwaab panktiyaaa....
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