यह एक दिन
हर वर्ष आता है
या शायद
लाया जाता है
यह दिन ,
आंकड़ों को टटोलते हुये
कभी कहता 1000 पर 945
कभी 33 प्रतिशत
कभी 18 प्रतिशत ,
इनमें हेरफेर से
हो जाता है
क्या समाज में परिवर्तन ?
बदल तो नही जाती
मानसिकता ,
प्रकृति की प्रकृति
और कुछ कुछ नियति,
कम तो नही होती
रोज की घटनायें
प्रताड़ना
गली सड़क पर
उछलते फिकरे
बसों में हाथों की हरकतें
भीड़ में ठेलमठेल
मां से शुरु होकर
बहन तक जाती गालियां
लड़कियों की पाबंदी
बचपन से स्त्री बनने का दबाव
और नुमाइश लड़की की
कुछ लोगों के सामने
जो आखिर पुरुष बन
तय करता है
उसका भविष्य
अपनी शर्तों पर
रिवाजों की दुहाई देकर !
सदियों की मानसिकता ही तो
कायम रखता है ,
कितनी ही उचाईयां छूकर भी
समाज की
प्रश्नवाचक दृष्टि
वक्रता कम नही होती
वह तीक्ष्ण होकर
कसौटियों के कांटे
और बिछाकर कहता
अब!
पार होकर
दिखाओ तो जानें!
..............किरण राजपुरोहित नितिला
1 टिप्पणी:
अच्छी रचना... परिवर्तन सहज भले न हो अनिवार्य तो है ही.
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