मंगलवार, 28 अप्रैल 2009




खिताब कविता
वह लौट आई है आज
फिर इसी पिंजरे में
जहां कुछ वर्श पूर्व फेंक दी गई थी,
कन्यादान करके सौभाग्य पाये थे वे
भार भी हलका हुआ था काफी
उसे उसके ‘अपने घर’ भेजकर;
इससे पहले उसकेा खूब पिलाये गये
संस्कारों के घूंट
उस ‘अपने घर’ के लिये
जैसे चिड़ियाघर भेजने से पहले
जानवर को वहां के अनुरुप ढाला जाता है ;
क्या पहनना चाहिये
कहां जाना चाहिये
किससे बात करनी चाहिये
नजरें नीची रखनी चाहिये
कम और धीरे बोलना चाहिये
सवाल नहीं पूछना चाहिये
आज्ञा माननी चाहिये
सवालिया चेहरा ही लिये रही,
वह पूछना चाहती रही
क्या उसे जीवित रहना चाहिये ?
पर पूछ न पाई
वर्जित है खुद की सोच रखना
लेकिन जवाब हाँ था
हाँ पति परमेष्वर की चाकरी नामक पुण्य के लिये;
उसका मरना अनगिनत सवाल खड़े कर देता है
दोनों वंषों के लिये
उसकी नींव पर ही तो खड़ा होगा
नया वंष
और कंगूरे हंसते रहेगें उसकी बलि पर;
अच्छी गऊ बिटिया का खिताब पाये
वह ‘अपने घर’ के खूंटे से बांध दी गई
और मजबूरी -रिवाजों की कुंडी लगा दी गई्र
फिर खटने लगी वह
अच्छी बहू के खिताब के लिये ,
खुद के लिये सोचना उसका
उन लोगों को पसंद नही है
और पसंद नहीं है
बजती पायल पहनना
फबते कपड़े पहनना
पढना
लिखना
खिलखिलाना
खुल कर सांस लेना आसमां देखना ;
उनकी पसंद का खयाल रखना
यही उसका परम धर्म है
पसंद है केवल उन्हें
उसके धोये प्रेस किये कपड़े
उसका बनाया खाना
चमचमाता घर
नीची नजरें
कम जरुरतंे,
सब कहते हैं
अच्छी बहू पाई है आपने
कितना अच्छा काम करती है !!!!
अपनी मिट्टी की एक कतरा
हवा भी पाती है
कुछ वर्शों में
अनेक षर्तों पर
पिता का निरीह चेहरा देखकर
वो भी नहीं चाहती अब तो
उसके जर्जर हुये षरीर को देखकर
मां की वह घुटी घुटी रुलाई सह नहीं पाती
लौट जाती है वहीं
‘खुष हूं’ का आष्वासन देकर
उसी पिंजरे में
ताउम्र खटने के लिये
बदले में पाती है
‘अपने घर ’में
दो जून रोही व
अच्छी पत्नि का खिताब ?


.........किरण राजपुरोहित नितिला


शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009

Kavita

दिन

दिन भी कितने
अजीब होते है
कभी काटे नहीं कटते
कभी झट फुरर्र हो जाते
कभी उदास दिखते
कभी दिखते खुषी से सरोबार
कभी झाूमते आते
गुनगुनाते चले जाते
कभी प्रतीक्षा ही रहती
जैसे पेढ़ की डाली पर
मन्नत के रुमाल की तरह
अटक गये
कभी अचानक आकर ऐसे
टिक जाते जैसे
यही थे
नजर नही आये थे
धुंध से
छूकर थामना चाहो तो
सरकते रुठे बच्चे की तरह
और सरक सरक कर
तरसाते
हाथ पर हाथ धर बैठ जायें
तो तितली की भांति हौले से
आबैठते कंधें पर

किरण राजपुरोहित नितिला

बुधवार, 22 अप्रैल 2009


गुरुवार, 9 अप्रैल 2009

Kroor thapede

  Kroor   Thapede
  
samay  ke
 kroor  thapede
 swapn  mere
chuur kar  gai,
ur  ki peeda
uda  le jati
aisi  aandhi  
aai  na  koi,
bahut bhigoya
khare paani ne
gaalon   ko
man  ki tees ko
or  kureda  ,
 pighla  na saka
kisi  ke  harday  ko
sada geeli  rahi
aankho  ki kor,
dilasa diya  
door se hi  sabne
 kandhe par haath
 na  diya  kisi ne
 Kiran Rajpurohit Nitila

Coo kar mere man ko



Jo pehli  bar  rasta   banata   hai   use   sabse    jyada   kasht  hota      hai.

Accha   khana ,  accha   pehnana ,  sukh   se   rahna   hi   to  sukh  ki   paribha   to   nahi.

Purush   to   Kuraan   ki  baate   manege   hi   kyonki   usme  unko  hi   tavajjo   dee  gai   hai   lekin  ladkiya ?    stri hone   ka  matlab   yah  to   nahi   ki   vah  purush   se   heen  hai.


                                                 Tasleema  Nasreen


बुधवार, 8 अप्रैल 2009

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khud aage badhkar milne par man ka sannata tootta hai, samajikta badhti hai,
apni kamiya pata chalti hai.

Anuchit aalochna vastav me choopi hui  prashansa hoti hai.
  
Dushman ke prati nafrat ki aag ko  itni  tej  mat  rakho  ki  khud  usme  jal  jao.

Kathin kam  isliye  kathin  hote  kyonki  hum prayatn  nahi karte.