बुधवार, 9 फ़रवरी 2011

वो पुलकित धड़कन

वो पुलकित धड़कन
बीती खामोशियां
अब भी कसमसाती है
कूहूकना   चाहती है
शालीनता से
जो कभी बस
इक पल चहक कर
रह गई थी
संस्कारों के पैरों तले
वो नन्ही सी
कचनार  जैसी
 पुलकित धड़कन
 अब भी उनींदी है
डायरी के किसी पन्ने तले
और रह रह कर
झांक जाती है
मन के किसी
मोड़ पर
और मैं
 नजरअंदाज नहीं कर पाती !
.....किरण राजपुरोहित नितिला

सोमवार, 10 जनवरी 2011

मैं और तुम

मैं और तुम
गुनगुनाता
खतम होता हुआ
गीत तुम्हें याद कर
फिर से
मन में बजने लगता
तुम्हारी छवि संग
रागें नृत्य करती
रचती स्वर लहरियां,
व्यग्रता की ताल
बहा ले जाती मधुर यादों  में
जहां मुस्कुरा रहे होते
मैं और तुम !
बनकर
हम!
किरण राजपुरोहित नितिला