बुधवार, 19 अगस्त 2009


लहरें
मिलने केा आतुर
सिर पटक रोती,
निर्मोही धरती
बार बार परे धकेलती
प्यासी आंखेंा से
निहारता रहा चांद!
इठलाती हुई धरा
आगे बढ जाती ,
क्षितिज पर चूमती
आकाष को
वियोगियों को तड़पाती
खुद भी प्यासी रह जाती!
-किरण राजपुरोहित नितिला

मैं छाया हूं!!!
हर एक का रोषनी में साया हूं
सुख में मुझे देखते नही
चेहरा उपर किये
अनदेखी किये जाते है,
पीछा करती हूं फिर भी
रौंदना चाहते है पैरों से
सरकती जाती हूं मैं
साथ सब छोड़ देते है
रहती हूं तब भी मैं
भंगुर से मोह बंधाते हैं
लेकिन चिता मंे भी साथ देती हूं मैं
अंधेरे में न दिखूं
हूं तब भी मैं
अमीर गरीब बूढा जवान
भेद नही तनिक करती मैं
सबका साथ निभाती जाती मैं
सूर्य की सहचरी हूं मैं
सृश्टि के पहले कण से
अस्तित्व में हूं मैं
हर वस्तु
हर अकार प्रकार
हर प्राणी का अभिन्न हूं मैं
सुख दुख में भी समान प्रेम है
प्राणी से,
लेना कुछ नही है मुझे
इस तुच्छ प्राणी से
निस्वार्थिनी हूं मैं !1
सहभागिनी हूं मैं!!
-किरण राजपुरोहित नितिला