मंगलवार, 26 जनवरी 2010

कविता




पिताजी!!!!!!
            
देखकर आपको!
 पनिया गई आंखें
रुंध गया गला ,
आज
 पैाळ तक पहंचने से पहले
 नहीं सुनाई दी
वो दबंग
स्नेहसिक्त आवाज
आओ बेटाजी बाईसा !
कहकर उतावले
लेकिन दृढ कदमों से
खिंचे आते
और एक हाथ मेरे सिर रख
घड़ों आशीष देते
उस रुप की प्रतीक्षा में
टकरा गई
पुरानी खाट से ,
 जहां धंसा था हड्डियों का ढांचा
 जैसे तैसे ऐनक लगा
बेटा जी बाईसा को
 पहचाना
किन्तु भरसक प्रयास करके भी
 हाथ  न
उठ सके मेरे सिर तक
आशीश के लिए
और बुदबुदाते रहे होंठ
कुछ अस्फुट सा!
आशीष था
या अपनी व्यथा?
जानती हूं कि
 पिता हर रुप में
आर्शीवाद ही होते है,
और
कंापते रहे थे वे हाथ
जो थामे थे वंश वृक्ष केा
बलिष्ठ  भुजायें उठ न सकी
जिनमें हम निश्चिंत हो झूले
झंझावतों से बेखबर
और निस्संग उंघा बचपन
अपनों का ही नही
गांव के दर्द को सहारा था,
वे आंखें जो
थर्रा देती थी
खड़े खडे़ ही आफतियों केा
धेाती की कलफ
लाठी की कड़क
और गर्जना भरी हुंकार
मान थी गांव का
 भटकों की पगडंडी
दुखियों के धीर
वो घनी छांव
आज
क्यूं सिमट कर रह गई
एक ढांचा मोहताज सा!
............किरण राजपुरोहित नितिला

कविता



उसको .........

दनादन गोलियां बरसाते
बम फंेकते
याद नही आती उन्हें
अपने पिता की
 मां की
जवानों का सीना छलनी करते
 याद नही आती उन्हंे
अपनी प्रियतमा की?
जो उसकी बलिष्ठ छाती पर सिर रख
सारी दुनिया में
खुद केा महफूज समझती है
 सपने देखती है
अपने भीतर प्रेम के अंकुर सहेजती है
और वह मुग्ध निहारता तनमन, जीवन जीता है
खून से सरोबार सीना ,
सपने में देख वह !
खुदा से खैर न मांगती होगी उसकी,
किसी के इंतजार को अंतहीन बना  कर
वह
पत्नि के पास खुषी से लैाट जाता है
विजयी का दंभ भरकर
 वह वैसा ही स्वागत  कर पाती होगी?
या  उस जवान की पत्नि को
अपने भीतर ही कलपता  महसूस कर
उदास होती होगी !
जहां वह
 थका मांदा पहंुच कर दम भरता है
चैन से उंघ लेता है
नई स्फूर्ति के लिये
मां दहलीज पर खड़ी
उसकी राह देख रही होती
 और वह
दूर से ही अपना हाथ
लहराता
उड़ता सा आता
 एक के बाद एक
स्वजन की खैरियत पूछ कर
  सुख की सांस लेता होगा
रसोई से उठती खुष्बू से
मन हरा होता हेागा
तब ??
तब ???
क्या  याद न आते होंगें वे घर
जहां वह अभी अभी बम रख कर आ रहा है !!!!!!
...............किरण राजपुरोहित नितिला