सोमवार, 4 मई 2009


ओस की बँूदें
सुबह टहलते हुये
भिगो देती है
मन अंतर्मन
नन्ही घास पर ओस की बूँदें ,
महसूसता हूं
भीतर तक आर्द्रता
सेाख लेता है तनिक तृषित मन
चू पड़ी हो जैसे
बालू पर बँूदें,
जल्दी से आगे बढ़ जाता हँू किंतु
हथेली पर लिये खड़ी पाता हँू
प्त्तियों को ओस की बँूदें
भर लो!आखेां में
समा लो! हृदय में
जरूरत है, जरूरत पड़ेगी
जब बाजार में हुये विस्फोट से
आहत लोगों के क्रंदन सुन कर भी
झुका सिर,अनदेखा कर
गुजरने लगोगे!
....................किरण राजपुरोहित नितिला





फिर भी उसका धर्म


वह
कइ्र्र दिन बाद
आज फिर हुमकती आई वह
पल्लू को मुंह में दबाकर
शर्माते हुये दरवाजे की ओट में हो गई
मैं समझ गई,
फिर उदास सी काम में जुट गई
झुकी हुई पीठ पर नजर आये
ताजे उभरे निशान
फुर्ती से ढक गई
मैं समझ गई ,
नजरें झुकाकर फिर जमीन कुरेदने लगी
उसकी ये नजरें ये कलाप
जाने पहचाने है मेरे
उसने कुछ कहा नही
पर मैं समझ गई ,
गहरे रंग के सिंदूर तले
फिर आकार ले रही थी
उसके भगोड़े पति की आठवी संतान और
पीठ पर झांकती उसके चरित्र की सुनवाई
मैं समझ गई
भाग जाना सारे पैसे लेकर एक बार फिर ,
मैंने पूछना चाहा............???
वह समझ गई
ठंडी उसांस भर बोली
‘’ कैडो़‘ ई व्है तो म्हारों सुहाग है
जीवण रो आधार
म्हारे टांबरां रो बाप है
सतियां रो धरम ई ओइ‘ ज है ’’
म्ंौं पूछती हूं तुम दोनों के धरम इतने विपरीत क्यों हैे?
...........किरण राजपुरोहित नितिला






क्षणिकायें

श्वासहै
आस है
मुक्ताकाश है
फिर किसका इंतजार?

दर्पण में छवि
तुम्हारी है
रुप बदला तो क्या

आधार शिला हो
सृष्टि की
सदैव दब कर रहोगी?

बादलों की ओट से
झांक रहा भविष्य
अब तुम्हें चेतना होगा!!!






कविता

घटनाओं का दवंद
होता है मानस में
विचारों का मंथ्न
झकझोर देता है
अनेक सिरेे दृश्टिगोचर होते है
एक सिरे को थाम
लेखनी भाव हदय मानस विचार संवेदना के गहरे शब्दों की माला
पिरोती चली जाती है
गहनतम प्रेरणा से
लता की तरह
शब्दों से लिपटती एकमेक होती
नवजातकचनार सी
बढती ही जाती हे ,
सोच विचार दृष्टिकोण के
फूल खिलाती
तृप्ति का गंधपान कराती
मन मस्तिश्क को शीतल करती
मानस के बहुत मंथन से
जन्म होता है
कविता का जो
पाठक को एक विचार में
मथता छोड़ देती है््््््



छू कर मेरे मन को

कांच का टुकडा़ टूट कर तेज धार वाला छुरा हो जाता है वही कैफियत इंसान के दिलक की है।



प्रतिभा बिना विघा,कंजूस का ध न अैर मुर्ख का बल किसी काम नहीं आता।

कायर बहुसंख्यक होना चाहता है जबकि बहादुर अकेले लड़ने में शान समझता है ।

दुनिया में जो बदलाव हम चाहते है ंवैसा बदलाव हमें पहले खुद में लाना हेागा।

पुरुष बढती उम्र महसूस करता है और स़्त्री के चेहरे पर बढती उम्र दिखाई देती है।