रविवार, 6 सितंबर 2009


कभी कभी मैं----

ििकसी शाम को
बेवजह उदास होने के बजाय
खोल लेती हूं यादों के कपाट
 बैठ जाती हूं अतीत के
अंागन में
झूलते हुए
 बीती बातेां के
झूले में ,
वर्षंेा से बंद दराज में
मिली जुली घटनाओं ताजी खुश्बू
सांसों में भर
छूती हूं
यादांे से सरोबार
उन तस्वीरों केा
जिनमें कैद है
कई कड़वे मीठे चेहरे
कई अनोखी बातें
वे बातें
जिन पर
तब ध्यान ही न गया
था,
और अब
वही
कितनी अच्छी
कितनी भली
कितनी रोचक
कितनी अनोखी
लगने लगी है
कि लगता है
 झट से
किसी से कह कर
उन पर ठहाका
लगाकर आज
जीवंत कर लूं
फिर से!!!!!!!
किरण राजपुरोिहत ििनितला