मंगलवार, 9 जून 2009





 बेटे की दावत है ..............

एक कोने में 
खड़ा हूं 
मैं 
लिपे पुते चेहरों को 
पर्दे के कोने से देख रहा हूं 
मैं  
मेहमानों की भीड़ से दूर
 बेजरुरत का सामान हूं 
मैं 
बेटे को दुनिया में लाया
 लेकिन आज 
परिचय की चीज 
नहीं हूं 
मैं
पोपले मुंह का लड़खड़ता बूढ़ा 
देास्तांे में उसके 
शरम की चीज हूं 
मैं ,
रह रह याद आती है
 मां की पनीली आंखें !!
छोड़ आया था  
एक आशा देकर 
शहर की अंधी दौड़ में,
 सुनकर न सुना 
 उन्हीं आहों की सजा पाता हूं
मैं!!!!
 किरण राजपुरोहित नितिला