गुरुवार, 21 मई 2009


सरवंट (लघु कथा)  


  स्कूल से आते ही मोहन को पता चला कि देवजी दाता अपने बेटे के 
पास से शहर से लौट आये हैं ,वह उनसे मिलने के लिये उतावला हुआ। उनका 
बेटा किशन, मोहन का बचपन का साथी है। 
किशन अब दिल्ली में बहुत बड़ा प्रशासकीय अफसर है। काफी सालों बाद किशन 
ने अपने पिता को अपने पास बुलाया था। उसके क्या ठाठ-बाट,रौब-दाब है यही
जानने की उत्सुकता उसे झट से देवजी दाता के पास खींच लाई।
 प्रणाम कर वह अपने यार और शहर के हाल चाल पूछने लगा । अपेक्षा के 
विपरीत दाता कुछ उदास से लगे। बेटे की खुशहाली से फूले नही समाने वाले 
बहुत बुझे से लगे। बहुत सी बातों के उन्होंने जवाब दिये फिर एक गहरी दृष्टि 
मोहन के चेहरे पर डाल कर बोले
  ‘‘....अबै थूं मनै ओ बता‘क सरवंट मतलब कांई व्है ?..’’ वह उनकी मनोस्थिति
 से घबरा गया। उदास तो वे पहले ही लगे थे। लेकिन ये सवाल उन्हें क्यों पूछना 
पड़ गया। अनायास ही वह सही अर्थ छुपा कर बोला
  ‘‘ इंग्लिस में सरवंट मतलब बापू व्है। पण ..पण..आप ओ क्यूं पूछियो ? कांई कारण है?’’
  ‘‘....किसनो बेटो आपरै दोस्तां नै म्हारे सांमी इसारो कर’र कयो ऐ सरवंट है। 
...उणी बखत म्है सोच लियो हो’क तनै इणरो मतलब जरुर पूछूंला.......पण बेटा थूं ई मनै 
टाळ रयो है...... अगर ओ ई मतलब व्है तो दोस्त रै बापू नै दोस्त परणाम तो करता. 
ई व्हैला पढ़िया लिखियंा रै समाज में...........पण सरवंट नै.......’’ रुंधे गले से बोले 
औैर दूर कहीं देखने लगे । 
  किंकत्र्तव्यविमूढ़ सा मोहन दाता से नजरें न मिला सका । उसकी आंखों में 
अतीत के कई दृश्य नाच उठे। रात -दिन दिहाड़ी-मजदूरी में खटते दाता की आंखों 
में एक ही सपना था कि किशन योग्य बन जाये और सब सुख से रहें । आधा 
पेट रहकर भी बिना थके किशन को पढ़ाया। वो आज कितने टूट गये। 
वह निःशब्द उठ गया। .....किरण राजपुरोहित नितिला


   

ओ! चिरैया
ओ आंगन की गोरैया ओ!
सुन मेरी चिरैया ओ
चहकती है तू अलसवेरे
जलते हैं दीप बहुतेरे
यहंा से वहां 
गोद की जमीं से
हदय के आसमां तक
इधर उधर 
तुम चंचल लहर 
मस्त स्वछंद
घर में गूंजता छंद
अल्हड़ हिरनी सी
उमंगें कुलाचती सी
अठखेलियों से दिप दिप
ये मेरा मन आंगन
पर जानती हूं मैं
उड़ जाओगी इक दिन 
अन्य आकाश में
आशीष विश्वास की पाखें ले
नया आसमां तलाशने
अल्हड कदम 
डग बन जायेगें
दृढ़ता के 
चहकेगा इक नया आयाम  
आत्मश्विासी लहर बन 
बना जाओगी नई सीमायें
कुलांचों से शिखर छू लोगी तुम!
  किरण राजपुरोहित नितिला


ये क्या हो गया है?
अजान आरती एक सुर मेंहो
वेा दिन लद गये हैं
पहले बात और थी
हथियार अब नंगे हो गये हैं,

मां की सेवें अम्मां की सिवइयां
इक आंगन सूखी थी
गरम हुये खून 
पे्रम प्यार ठंडे हो गये हेेैं,

चुन्नी बुर्का ओढ़ने
झूले साथ सावन में
लाल पीले भूरे
सब बदरंगे हो गये हैं,

राख हुई किलकारियां 
चूड़ी पायल
हंसते घर वीरान 
सूने खंभे हो गये हैं,

युगों का प्रेम भूल
अंगार सीने में लिये है
राह में गाय मरी 
बस दंगे हो गये है
   



काश वो होते!
फिर जाना चाहा उस पार 
देखा पुल ही टूट गया 
बात तो कुछ नहीं थी
 फिर भी शायद कुछ थी 
अपेक्षाओं की गठरी के टुकड़े छिटके पड़े थे
यादों की किरचें बुहारी ही थी कि 
स्मृतियों के रंगमंच से ओझल होने की मांग की ,
 उसने समझा अब तक यूं ही लादे थे 
न पूछा न समझा 
घोंघे की तरह उस ओर ही दुबक गया 
पुकार टकरा टकरा कर लौट आई,
 भरी दुपहरी साथ छोड़ गये
 अब ही तो लगने लगे थे
 अपने से और हो गये सपने से 
चिलचिलाती धूप में काश वो अब भी होते!!! 
अपने से ,
 कौन सुनेगा?  
अपनी अपनी सोचों के गढ़ में घिरे हैं कोहरे से
खिड़की है न द्वार 
चाहूं तो भी कौन करे विचार ?
यादों के पट को कितना खड़काउं  
जब तीर लिये हैं तैयार ........किरण राजपुरोहित नितिला