गुरुवार, 21 मई 2009


काश वो होते!
फिर जाना चाहा उस पार 
देखा पुल ही टूट गया 
बात तो कुछ नहीं थी
 फिर भी शायद कुछ थी 
अपेक्षाओं की गठरी के टुकड़े छिटके पड़े थे
यादों की किरचें बुहारी ही थी कि 
स्मृतियों के रंगमंच से ओझल होने की मांग की ,
 उसने समझा अब तक यूं ही लादे थे 
न पूछा न समझा 
घोंघे की तरह उस ओर ही दुबक गया 
पुकार टकरा टकरा कर लौट आई,
 भरी दुपहरी साथ छोड़ गये
 अब ही तो लगने लगे थे
 अपने से और हो गये सपने से 
चिलचिलाती धूप में काश वो अब भी होते!!! 
अपने से ,
 कौन सुनेगा?  
अपनी अपनी सोचों के गढ़ में घिरे हैं कोहरे से
खिड़की है न द्वार 
चाहूं तो भी कौन करे विचार ?
यादों के पट को कितना खड़काउं  
जब तीर लिये हैं तैयार ........किरण राजपुरोहित नितिला

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