रविवार, 31 जनवरी 2010

इक खयाल......

नहीं छूटता
कभी भी
नहीं भूलता
कही भी
इक खयाल!
जो चांदनी  की
चादर की तरह
पसर गया है
मेरे मन मानस में
और बाहुपाश सा
 नर्म गर्म
महकाता रहता है
मेरा ओर छोर
 और गनगुनाती है
दिशा
एक मोहक धुन
 सुनो!
तुम भी!..........किरण राजपुरोहित नितिला

कविता


इक पल.......
इक नन्हा सा पल
 हो ,जो खोल दे
नये द्वार
नया राग
 इक मिठास के साथ
 जो घुलती रहे उम्र भर
 सहज मित्रों में
और
 दिप दिप रोशन होता रहे
मन आंगन
मह मह महकता रहे
मानसाकाश
स्वच्छता की धूप
खिल खिल कर
खोल दे
 विचारों के नये सोपान
...............किरण राजपुरोहित   नितिला

शनिवार, 30 जनवरी 2010

कविता


जब सच्चाई देखी  

टूटे सारे भ्रम जब सच्चाई देखी
उथले पानी की गहराई देखी


व्यर्थ बातों के पहाडखड़े है  
हवाओं की हाथापाई देखी 


सोचने को मजबूर हुये जब
सज्जनों की जग हंसाई देखी


माजरा सब समझ आया जब
आवारों की पीठ थपथपाई देखी


इतिहास की आह निकल गई
जब हिन्दु मुस्लिम लड़ाई देखी


........किरण राजपुरोहित नितिला

मंगलवार, 26 जनवरी 2010

कविता




पिताजी!!!!!!
            
देखकर आपको!
 पनिया गई आंखें
रुंध गया गला ,
आज
 पैाळ तक पहंचने से पहले
 नहीं सुनाई दी
वो दबंग
स्नेहसिक्त आवाज
आओ बेटाजी बाईसा !
कहकर उतावले
लेकिन दृढ कदमों से
खिंचे आते
और एक हाथ मेरे सिर रख
घड़ों आशीष देते
उस रुप की प्रतीक्षा में
टकरा गई
पुरानी खाट से ,
 जहां धंसा था हड्डियों का ढांचा
 जैसे तैसे ऐनक लगा
बेटा जी बाईसा को
 पहचाना
किन्तु भरसक प्रयास करके भी
 हाथ  न
उठ सके मेरे सिर तक
आशीश के लिए
और बुदबुदाते रहे होंठ
कुछ अस्फुट सा!
आशीष था
या अपनी व्यथा?
जानती हूं कि
 पिता हर रुप में
आर्शीवाद ही होते है,
और
कंापते रहे थे वे हाथ
जो थामे थे वंश वृक्ष केा
बलिष्ठ  भुजायें उठ न सकी
जिनमें हम निश्चिंत हो झूले
झंझावतों से बेखबर
और निस्संग उंघा बचपन
अपनों का ही नही
गांव के दर्द को सहारा था,
वे आंखें जो
थर्रा देती थी
खड़े खडे़ ही आफतियों केा
धेाती की कलफ
लाठी की कड़क
और गर्जना भरी हुंकार
मान थी गांव का
 भटकों की पगडंडी
दुखियों के धीर
वो घनी छांव
आज
क्यूं सिमट कर रह गई
एक ढांचा मोहताज सा!
............किरण राजपुरोहित नितिला

कविता



उसको .........

दनादन गोलियां बरसाते
बम फंेकते
याद नही आती उन्हें
अपने पिता की
 मां की
जवानों का सीना छलनी करते
 याद नही आती उन्हंे
अपनी प्रियतमा की?
जो उसकी बलिष्ठ छाती पर सिर रख
सारी दुनिया में
खुद केा महफूज समझती है
 सपने देखती है
अपने भीतर प्रेम के अंकुर सहेजती है
और वह मुग्ध निहारता तनमन, जीवन जीता है
खून से सरोबार सीना ,
सपने में देख वह !
खुदा से खैर न मांगती होगी उसकी,
किसी के इंतजार को अंतहीन बना  कर
वह
पत्नि के पास खुषी से लैाट जाता है
विजयी का दंभ भरकर
 वह वैसा ही स्वागत  कर पाती होगी?
या  उस जवान की पत्नि को
अपने भीतर ही कलपता  महसूस कर
उदास होती होगी !
जहां वह
 थका मांदा पहंुच कर दम भरता है
चैन से उंघ लेता है
नई स्फूर्ति के लिये
मां दहलीज पर खड़ी
उसकी राह देख रही होती
 और वह
दूर से ही अपना हाथ
लहराता
उड़ता सा आता
 एक के बाद एक
स्वजन की खैरियत पूछ कर
  सुख की सांस लेता होगा
रसोई से उठती खुष्बू से
मन हरा होता हेागा
तब ??
तब ???
क्या  याद न आते होंगें वे घर
जहां वह अभी अभी बम रख कर आ रहा है !!!!!!
...............किरण राजपुरोहित नितिला

गुरुवार, 21 जनवरी 2010

कहानी

नीड़ में नई चहक
  गालों पर नमी का अहसास हुआ। जाने कब  से नम हुई आँखें बरस गई। पीछे से पदचाप आती हुई सुनाई पडी़ झटपट आँखें पोंछी और नाश्ता परोसने लगी। नम्रता ने अंदाज लगाया कि यतीश रसोई के द्वार पर कुछ क्षण खड़े रह कर पलट गये। जानते हैं कि अब उसका आँसुओं से तर चेहरा दिखेगा और उनकी भी आँखें भर आयेंगी। बड़ी मुश्किल से कुछ महीनों बाद इन दिनेंा की सुबह की ताजगी को वाकई में ताजा मान कर महसूस करने में जुटे है। इस सिलसिले में रुकावट कुछ अच्छी सिद्ध न होगी।
कुछ क्षणों बाद  बलात् ही सहज हुई वाण्ी सुनाई दी ‘‘अरे! नाश्ता लाओ भई! देर हो रही है।’’
नम्रता ने नाश्ता ट्रे में रखा। कुछ क्षण ठिठक कर अपने उदास चेहरे पर सहजता लाते हुये चली और बोली
’’अच्छा जी! नाश्ता कबसे तैयार ही है। आप ही देर से तैयार हुये और इल्जाम मेरे सिर!‘‘
   खुश होने का आवरण ओढ़े यतीश को विदा किया। दरवाजे से पलट कर बरतन समेटने लगी। दही की प्याली पर नजर पड़ी। तो वहीं ठहर गई और आँखों में पानी भर आया। दही और शक्कर पिता-पुत्रों की एक सी पसंद। तीनों को ही हर मौसम में दही के साथ शक्कर या मिश्री चाहिये। इसके बिना खाना पूरा नहीं होता। कई दिनों तक तो आदत के अनुसार तीन प्यालियों में ही दही परोसती रही थी। लेकिन अब उनको मनपसंद गाढ़ा दही कहाँ मिलता होगा? बाहर का बेस्वाद और नीरस खाना कैसे खा पाते होगें बच्चे? फिर आसुओं की धारा बह चली तो वहीं सिर पकड़ बैठ गई। चक्कर का एक जोरदार झन्नाटा आया। हाथ पाँव ठंडे पड़ गये। बमुश्किल ही बिस्तर तक पहुँची। गद्दे के पास रखी तस्वीर से ही हाथ टकराया। तस्वीर को उठा कर देखा लेकिन पनियाई दृष्टि कुछ न देख सकी फिर भी नम्रता जानती है इस फोटो में तीनों पिता-पुत्र किसी बात पर जोरदार ठहाका लगा रहे हैं। भरपूर संतुष्टि और प्रसन्नता के फूल झर रहे हो जैसे। बीते मुछ महीनों में हजारों बार इस तस्वीर को देखा है। अचानक दराज खींचने की आवाज सुन कर आँखें पोंछी तो देखा यतीश गाड़ी की चाबी निकाल कर मुड़कर जा रहे हैं। न उसने ही कुछ पूछा, न उन्होंने। मौन में ही संपे्रषण हो चुका। अगर बात होती तो भी कुछ ऐसे ही हेाती सदैव की तरह।
 ’’ये क्या नम्रता ......तुम फिर रो रही हो? मत रेाओ। क्यूँ अपना स्वास्थ्य बिगाड़ रही हो। बच्चे होस्टल में ही तो गये है केाई सात समुन्दर पार नहीं। वो भी अपनी पढ़ाई के लिये फिर क्यूँ इतना रोती हो बोलो?’’ बहुत दुलार से पूछते।
‘‘.....................’’
‘‘याद आती है....? मैं मानता हूँ.मुझे नही आती क्या........?मैं भी तो........’’ इससे आगे यतीश भी नहीं बोल पाते। उसको सीने से लगा खुद भी रो पड़ते। जीवन में बड़ी से बड़ी विपदाओं में भी हँसते रहने वाले जीवटता के धनी यतीश की आँखों में आँसू देख जैसे वह स्वप्न से जाग पड़ती। उनके आँसू भला  नम्रता कैसे देख सकती है? झट सहज होकर हँसते हुये फाटक तक ठेल कर विदा कर आती। चेहरे पर मुस्कुराहट लाकर  नम्रता के गाल थपथपाकर कहते ‘‘परेशान न हो, बच्चे अपना
नया आसमाँ  तलाश  कर रहे हैं। उन्हें पीछे से आवाज न दो। एक दो दिन फोन मत करना।  उन्हें हॅास्टल के जीवन में ढ़लने दो‘‘।
  कई दिनों तक ऐसा चलने के बाद अब यतीश ने उसको  शांत करने का उपक्रम छोड़  दिया। शायद समझा-समझा कर थक गये। फोन कर के भी क्या होगा? उधर बेटे रुँधे गले से बात करेगें इधर वह खुद भी। खाने-पीने, पढ़ाई का ध्यान रखने के दो चार जुमले मुश्किल से बोल पायेगी। बच्चे भी कहेगें माँ! हमारी चिंता मत करना । आप दोनों
अपना खयाल रखना। स्नेहसिक्त उन मिश्री घोलते संवादों के बीच में दोनों ओर में से एक तरफ से एकाएक फोन रख दिया जायेगा। भर्राए स्वर में केाई भी अधिक न बोल पाता। उस के बाद नम्रता को बच्चों की याद के साथ-साथ एक चिंता और बढ़ जाती कि बच्चे उस अनजाने माहौल में अभी तक रचे-बसे नहीं है। यह बात अधिक  पीड़ा देती।
 उदास सी वह उठी  और काम में जी लगाने की कोशिश करने लगी। काम भी क्या है अब? घर जमा जमाया ही रहता। कई-कइ दिन टीवी तक चलाने की नौबत नही आती। जब मन ही उदास हो तो मनेारजंन के तमाम साधन बोझिल लगने लगते हैं। बिखेरा करने वाला है ही कौन? बच्चे यहाँ थे तब सुबह से शाम चकरघिन्नी सी घूमती रहती थी। सबकी फरमाइशें पूरी करने में ही जुटी रहती। दोपहर को स्कूल से घर आने के बाद घर को तो जैसे सिर पर ही उठा लेते। शाम तक लगभग सारी चीजें जमीन पर लेटी मिलती। बच्चों के पापा तो बच्चों से दो कदम आगे रहकर उन से भी छोटे बन जाते। घर को भी खेल का मैदान बना देते।  बीच-बीच में जूस -चाय, शिकंजंी की फरमाइशें चलती रहती। साथ में एक-दो दोस्त भी आ जुटते। फिर तो क्या कहना! भुनभुनाते हुये वह जब अस्त -व्यस्त सामान समेटने लगती तो उसका पारा चढ़ा जान तीनों ही सयाने बन कर मदद करने लगते। उनके भोले - भाले  निश्छल चेहरे देख नम्रता की तमतमाहट न जाने कहाँ छुप जाती। माँ! ये....माँ! वो... करते-करते स्कूल की, बाहर की कई बातें करते जाते। छोटे को तो अब तक उसकी गोद में ही सिर रख कर लेटना अच्छा लगता। फिर तो बड़ा भी जिद करता। आखिर नम्रता पालथी लगा कर बैठती । दोनों को ही सिर रखने की जगह देती फिर भी गोद में ज्यादा जगह को लेकर नोंक-झोंक चलती ही रहती।
भारी मन से वह उठी। सोचा कुछ जी बहलाये लेकिन कहाँ...........? घर के कण-कण में बेटों की याद, उनकी आवाजें, उनके भोले चेहरे समाये है जो आँखों से हटने का नाम ही नहीं लेते। हटे भी कैसे? पिछले सोलह सालों से उसकी दुनिया उसके दोनों बेटों के इर्द-गिर्द सिमटी थी। इन वर्षों में एक भी पल उन दोनों के बिना नहीं गुजारा और अब एक दम से ही दोनों दूसरे शहर चले गये। एक दिन के नहीं बल्कि कुछ वर्षों के लिये,जब तक कि पढ़ाई  पूरी नहीं हो जाती।
 लंबी उसांस  खींच कर रह गई। इन्ही जंजालों में डूबते-उतराते न जाने कब नींद आ गई। धीरे-धीरे पलकों में सपना उघड़ने लगा। दोनों बेटे साथ-साथ एक दूसरे का हाथ थामे हुये धुंधलके में सहमे हुये चले जा रहे हैं। भयग्रस्त  नजरों से इधर-उधर देख रहे हैं, किसी को ढँूढते से ..........झटके से जागी
नम्रता। उठ कर बैठ गई। यतीश घर आ गये थे और शायद उसे सोया जान खुद ही चाय बना रहे थे। उसे बैठा देख हाथ में थामे कुछ लाये।
     ‘‘देखो मैं क्या लाया हूँ।’’चहकते हुये यतीश बोले। चैंक कर देखा तो पाया कि एक हाथ में ब्रश,रंग और दूसरी हाथ में कैनवास थामे है और उस के देखते ही
एक हाथ अपने सीने पर रख कर झुक कर अभिनय जैसा सलाम  किया। वह खिलखिलला कर हँस पड़ी ।
 ‘‘चलिये मुझे जोकर की तरह देखकर ही सही बादलों में छुपी रोशनी की किरण नजर तो आई।’’ कहते -कहते बड़ी अदा से यतीश ने उसके पैरों के पास हाथ का सामान रखा और  घुटनों के बल बैठ गये।
 ‘‘बस तुम आज से ही पेंटिग शुरु कर दो। तुम कहती थी ना शादी से पहले पेंटिंग का शौक था लेकिन बाद में छूट गया। क्यूँ नहीं अब ही इस शौक को पूरा कर लो। समय का सदुपयोग हो जायेगा। तुम्हें छोटे बच्चों की तस्वीरें खास पसंद है ना तो सबसे पहले
नन्हे मुन्ने का पोट्रेट बनाना।‘‘ उसने ब्रश को छुआ और टकटकी बाँध कर देखने लगी। कुछ क्षण निस्तब्धता छाई रही। यतीश उसकी मुद्रा  चिंतातुर से देखने लगे जैसे अब क्या कहने वाली है।
कुछ क्षण बाद नम्रता ने ब्रशों को नीचे रखा और धीरे-धीरे चलकर मेज तक पहुँची ,वहाँ पड़ी तस्वीर उठाई जिसमें दोनों बेटे चैन से सोये हैं। छोटा छः महीने का ,बड़ा तीन साल का था तब यह निस्संग नींद का क्षण उसने कैमरे में ही नहीं स्मृति में भी संजो लिया था। सच! कितना शौक था उसे अपने बच्चों के पल-पल बदलते रुप, उनकी चपल मुदा्रओं को कैद करने का। काफी कुछ उसने अपना यह शौक पूरा भी किया। उन यादगार स्मृतियों को हमेशा यादों में भी जीया है और फोटो के रुप मेें भी । जब-तब एलबम का जखीरा ले बैठती है। सचमुच दिन तो जैसे पंख लगाये आते हैं और फुर्रर हो जाते हैं। आज कहाँ वे दिन?
लंबी साँस भरकर बोली ‘‘नहीं यतीश अब ये नहीं होगा। पहले मनःस्थिति और थी अब तो मेरा चित्त ही ठिकाने नहीं है तो भाव क्या उकेर पाउँगी। बेजान हाथों से चित्रों में खिलखिलाहट नहीे डाली जा सकती।’’
‘‘ लेकिन कोशिश तो.......’’
‘‘नहीं यतीश ....भगवान के लिये... दबाव न डालो।’’
‘‘लेकिन ऐसे कब तक चलेगा। तुम्हारे मन की स्थिति बिमारी के रुप में उभरने लगी है और समय के साथ बढ़ेगी  ही कम नहीं होगी। नम्रता सच के साथ सामंजस्य बिठाओ। बच्चे दो-चार दिनों के लिये नहीं गये हैं समझने की कोशिश करो। उन्होंने नया रास्ता तलाशा है जो तुम्हारी गोद तक वापिस नहीं आयेगा। पढ़ाई पूरी करेगें, कल नौकरी लगेगी ,शादियाँ होगी । उनका भी परिवार होगा।जहाँ काम होगा वहीं रहना भी पड़ेगा। तुम ये माने बैठी हो कि वापिस यहीं लौट कर आयेगें। ऐसा नहीं होगा !! तुम्हारे कारण मैं भी तनाव में रहने लगा हूँ।’’ कहकर  यतीश ने अविचलित खड़ी नम्रता को झिंझोड़ा।
 ‘‘घर की खुशियाँ तो जैसे कहीं खो सी गई है। हरदम उदासी का वातावरण अच्छा नहीं है। नम्रता समझने की कोशिश करो।’’
‘‘ लेकिन मेरा बच्चों से दूर रहना बहुत मुश्किल है।’’
कुछ दिनों बाद यतीश ने उससे कुछ कागजों पर दस्तखत कराये। उसके बहुत पूछने पर भी कुछ न बताया बस केवल मुस्कुराते रहे।
   एक शाम को एकाएक ही किसी बहुत छोटे बच्चे के रोने की आवाज कानों में पड़ी। ऐसा लग रहा था जैसे बहुत ही पास से आवाज आ रही है। पल भर में ही आवाज की दिशा में लपक पड़ी। दरवाजा खोला तो सामने कोई न था।
आवाज वाला प्राणी धरती हाथ पाँव पटक-पटक कर रो रहा था।  अनायास ही रोते शिशु को गोद में उठा लिया। और उसे जैसे इसी गोद का इंतजार था। वह चुप हो गया। लेकिन नम्रता की आँखों में खुशियों की धार थी। उसे लगा जैसे उसका बेटा ही
खिलौने का रुप धर कर आ गया। अब उसने देखा कि गुलाबी फ्राॅक में लिपटी वह नन्हीं गुड़िया है। भोले से मुखड़े को  बेतहाशा चूम कर उसे गले से  लगा लिया।
‘‘ अपनी ममता को थोड़ा विश्राम दो ......और ये लो।’’यतीश चहकते हुये अवतरित हुये।
‘‘ अ.....आप....ये.....ये..गुड़ि़या क...कौन है और ये क्या है?’’
‘‘.................’’
‘‘आप निश्चिंत हैं इसका मतलब आप इसे जानते हैं
‘‘ये.....ये.....हूँऽ ऽ ऽये चीया है। क्यों चीया नाम ठीक है ना अपनी बेटी का? और ये हमारी बेटी के खिलौने है।’’
‘‘ह.....ह.....हमारी गुड़िया .....हमारी चीया?’’

‘‘ हाँ ..हाँ हमारी । तुम अक्सर कहा करती थी ना कि हमें अपने बच्चों के लिये ही नही दूसरों के बच्चों के लिये भी कुछ करना चाहिये। पहले तो हमें फुर्सत नही थी सोचा अब भी क्या देर हुई है। अब तो पूरा ध्यान दे सकेगें।’’
‘‘तो ....तो वो कागज.....उस...दिन’’
‘‘ हाँ हम कानूनी तौर पर भी इसे अपनी बेटी कह सकते हैं। और तो और हमारे बेटे भी छोटी बहन का आना सुनकर बहुत खुश है।’’
‘‘ सच यतीश मन पढ़ना कोई तुमसे सीखे। मैं भी ऐसा ही कुछ चाहती थी।’’
   और नीड़ में नई चहक ने जैसे अंजुरी भर - भर खुशियाँ बिखरा दी।

                               ----किरणराजपुरोहित‘नितिला’              
              







a

मंगलवार, 12 जनवरी 2010

My Photography


   ये मस्त मस्तानी शाम
और  सर्द पेय            



कविता

कहां हो ...............         
  सकल
सुयोगों और दुर्योगों को
 पार कर
जब !
जीवन इस पथ से
 गुजर रहा है
 न जाने क्यूं .........?
बचपन फिर अंखुआने लगा है
फिर  ठुनकने लगा है
भोली जिदें
जिन पर वारि जाती थी वो
वो!!!!!!!!!
 आज कहां है....
 दुआ करती रही
मेरी कामयाबी की
हर घड़ी,
मैं ध्यान न दे पाया
कभी
जब वो उम्मीद से देखती
मैं व्यस्तता की आड़
लिये रहा
और तुम नजरों की ओट से
हरदम आषीशती रही
लेकिन
आज.......
 मैं
साक्षात् देखना चाहता हूं
तेा
वो अब कहां है ????

तुम्हारे लिये
कुछ कर
तमाम क्षुब्धता केा धो देना चाहता हूं
लेकिन
तुम नही हो
  तुम कही नही हो
मां !!!!!!! तुम कहीं नही हो
...............किरण राजपुरोहित नितिला

सोमवार, 11 जनवरी 2010

कविता



 आज फिर
तुमने कहा
तुम्हारी याद आई ..
मुझे वह बेला याद आई
जब
 तुम्हें मैं देना चाहती थी
 वह अधिकार
पर
तुम बगलंे झांकते
 किसी में कुछ ढूंढ रहे थे
और
मैं...........
तुममें अपनी ख्वाहिशें
हर डगर फिर तुम
 सहारा मांगते
 मैं पिघल कर
अपनी सार्थकता पर इतराती
लेकिन
कब तक........
 अब मुझे भी थामना है
 उसे
अपने ठगे जाने पर
बुरी तरह क्षुब्ध हूं
लेकिन तुम्हारे माथे पर
मेरे दुख की रेखा तक नही!!!!!!!!
.............किरण राजपुरोहित नितिला

बुधवार, 6 जनवरी 2010



सोच ( लघु कथा)
‘‘आइये आइये!श्रीमती शर्मा,बहुत दिनों बाद दिखाई दी।कहिए क्या हालचाल है,बिटिया का रिश्ता तय हुआ कहीं?’’
‘‘अरे कहां....आप तो जानती ही हैं अच्छे लड़के आजकल कहाँ मिलते हैं?कहीं घर में कमी,कहीं लडके में कमी। नाजों पली बेटी है,हर कहीं तो नहीं दे सकते ना ।’’
‘‘ लेकिन पिछले दिनों मैंने जो लड़का बताया उसका क्या हुआ? बढ़िया नौकरी,सुंदर लड़का,भरा पूरा घर,मां- बाप बहन भाई सब कुछ तो....’’
’’ना बाबा न,कहाँ माँ- बाप ,भाई- बहन के बड़े परिवार में झोंक दूं बेटी को? मैं तो ऐसा लड़का ढूंढ रही हूं जिसके परिवार की कोई जिम्मेदारी न हो,अच्छी नौकरी हो। अपना कमाए,अपना खाए और बिटिया को फूल सी रखे,बस। ये भाई बहिन ,सास ससुर की सेवा मेरी बेटी से नहीं होने वाली। अरे!उनके खेलने खाने के दिन है न कि झंझट में पड़ने के.....’’
‘‘लेकिन हर लड़के के मँा बाप,परिवार सब कुछ तो तो होगा ही।वो भी तो अपने बेटे बहू से आस लगाए होंगे ना ।’’
‘‘अरे !नहीं ,बिटिया प्रथम श्रेणी एम बी ए है,सिर पर पल्ला ओढे़ सबकी चाकरी नहीं करने वाली। आजाद खयाल की लड़की है, जिंदगी बेरोकटोक गुजारना चाहती है।..’’
‘‘खैर.. आपके बेटे की भी तो नौकरी लग चुकी है।उसकी शादी कब करने का विचार है?’’
‘‘अरे अच्छी लडकी मिल जाए तो आज ही शहनाई बजवा दूँ । मुझे तो पढ़ी लिखी ,अच्छे संस्कारो वाली, सीधी सादी बहू चाहिए जो आते ही घर संभाल ले अैर मुझे घर के कामों से छुट्टी दे दे बस। आप तो जानती ही हैै आजकल की लड़कियां घर के काम तो करना ही नहीं चाहती। आते ही पति पर न जाने क्या मंत्र फूंकती है कि बेटा तो समझो गया हाथ से ।एक ही तो बेटा है हमारा ।सारी पँूजी लगाकर पढ़ाया है। बहुत कुछ सोच रखा है हमने अपने बेटे बहू से हमारे भविष्य के लिए।’’ ‘‘....!!!!!???’’..............................................किरण राजपुराेिहत नितिला

शुक्रवार, 1 जनवरी 2010

-------------kavita

og ,glkl-------------


lquk gS

Lkkspk gS
Ik<+k gS
dbZ ckj
dFkk dfork esa
bl ,glkl dks
 cgqr jksekafpr Hkh gqbZ gwa
blds [okc ls
tkus dSlk gksxk\
----------
 Bhd ogh eglwl d#axh
tSlk i
lquk gS
vkSj
oSlk gh gksxk og ,glkl
tc va[kqvk;sxk ,d liuk
 vkSj /kkj.k d#axh
,d dkasiy
Hkhrj gh Hkhrj
Lo;a dks ihrs gq,]
tks vuns[ks
vns[kh Mksj ls gh cka/k ysxk 
eq>s!
 gesa !
vSkj lc dks!
 vkSj lpeqp gh ------
og [okc
tks esjs eu esa ltdj
 eq> esa gh vadqfjr gqvk
vSkj fQj
,d fHkUu jkx ct mBk
tks vc rd
vulquk
vUphUgk gh  Fkk
esjs fy,
gekjs fy,!
 oks u;h jkfxfu;ka
u;k laxhr jp jgh Fkh
eq>esa
esjss lius esa
tc oks vkdkj ys jgk Fkk !!
,d ltho Lianu
[kud mBk Fkk
esjs gn; esa !
thou esa !
mlds vkus ls igys gh
tks [kq’cw foHkksj dj nsrh Fkh
ogh e/kqj  xa/k
vc [kq’kh ls ycjst
eg eg egdus yxh gS
 esjs iksj iksj esa
vkSj r`Ir djus yxh gS
esjh ru laiUurk dks
vkdBa Mwcs gSa esjs euehr
bl uoxhr esa
ctdj !
l`f”V  ds ltho vax dks
/kkj.k dj xed mBk gS
esjk vfLrRo
eq>s gh lkdkj djrk gqvk
og vkdkj
bd u;s fljs ls jp jgk Fkk
eq>s gh
vkSj eSa cgrh gh
tk jgh Fkh
bl jpf;rk ds
le; esa]

vuks[kk vudgk
,glkl gS
lpeqp gh
;g  !!!!
-----------------fdj.k jktiqjksfgr fufryk