सोमवार, 28 सितंबर 2009


एक शाम..............

एक शाम
यूं ही
चल रहा था
दिन
अपनी रफतार से
ढल रहा था
पगडंिडयेां की
दूर्वा
झुक रही थी
सामने एक साया
चला आ रहा था
बेदाग नजरें
वहीं जाकर
टंक गयी
वो साया
दिल में
उतर रहा था
कदमों में
मासूम थकन थी
गालों से
कानों तक
दहक रहा था
एक बार
मुड़कर
देख लिया जरा
दिल में
दूजा चेहरा
उतर रहा था
एक दूजे में
या
एक में दो दिल थे!
कैसा अजब माजरा
बन रहा था
सपनों की
हकीकत में
हाथ डाले थे
बिन आग
बिन तपन 
छाला पड़ रहा था!!
ििकरण राजपुराेिहत ििनितला




शनिवार, 19 सितंबर 2009





पहली बार ........ 
प्रथम स्पन्दन
जाने क्यूं आज
तेरा तकना
अच्छा लगा
जैसे सृिष्ट को
नई उमर लग गई हो
 समस्त उपवन ने
 जैसे नई देहरी में
कदम रखा हो
इन अनुभूितयों का
हदय में पहली बार
अंकुर फूटा
तुम्हारी उस
 सहज छुअन ने
 जैसे
मन उपवन
महका दिया
रोम रोम नयन बन
 तुमकेा निहारने को
आतुर हुआ
लेकिन
तुम्हारी अपलक दृिष्ट
और उसमें...........
!!!!!!!!!!!!!
संकोच का भार
ये पलकें न सह सकी
 झुक ही पड़ी
 न चाहते हुये भी,
लाज का रंग
मोहक लगता है !!
तुमने ऐसा ही कहा
था,
इस रंग की खुमारी
तुम्हारी सुर्ख आंखांे में
 छाती हुई
 मुझे ही चुराती रही!!!!!!!
जीवन का
वो मधुर स्पंदन
धड़कन से
वेा पहला पिरचय,
वे पल
आज भी
वैसे ही धड़कते है
मधुर स्मृित के पृष्ठों पर
........ििकरण राजपुराेिहत ििनितला






गुरुवार, 10 सितंबर 2009

लुकािछपी!! लुकािछपी!!!

नदी
स्ूखी नदी में बना
 यह घर
छाती में फफोला,
सीने में
फांस की तरह,
गर्दन तान कर
ठठाकर पैर पसारे हुये को,
 रोज देखती है
वह स्वयं को
निरंतर गंिदयाती ,
मसोस कर
उफ!
कर जाती है
और
स्वयं में ही
रह जाती है छटपटाकर ,
ििफर भी
सब कुछ भूल कर
ठिठकी सी रह जाती है
बच्चों की किलोल से !
उस घर का प्िरतरुप
कुछ सुखदायी है
सोच कर
उबाल पर छींटे पड़ जाते
 गुमसुम सी बिछ जाती है
धरती पर ,
धड़धड़ाहट से चैांक उठती है
 घ्ुमंतू पिहये
उसका सीना खोदने लगते है
फावड़ों -गैंितयों से
रोज हलाल होती है
भर भर तगारी
रेज़ा रेज़ा बिखेर दी जाती है
नींव में
निर्माण में
दीवार में
चंचल चपल
 खिलखिलाते कण
बांध दिये जाते हैं
चिनवा देते है
हवेिलयों तले,
सिसकती
कभी कभी वह
रेला बन बह निकलती है
 तकते हुये मकानों
फावड़ों केा
 लेिकन
कभी जब अट्ठाहास करती है तो
 समािहत कर लेती है
बहुत कुछ
अपने में
और
पटक देती है बहुत दूर
 किनारों को भी
ध्किया देती
बहुत पीछे
तट केा भी नद सा कर देती
खेतों को गड्डों में
बेरों को क्रोध से पाट देती है
 भरभराकर
फूटते है फफोले
 मेड़ें बिखर बिखर
घिसट जाती है दूर तक
क्षमा मांगती है
उनकी करतूतों की जो अब
सुख की नींद सो रहे है
------किरण राजपुराेिहत िनितला




बुधवार, 9 सितंबर 2009

MY PHOTOGRAPHY


MY OIL PAINTING


रविवार, 6 सितंबर 2009


कभी कभी मैं----

ििकसी शाम को
बेवजह उदास होने के बजाय
खोल लेती हूं यादों के कपाट
 बैठ जाती हूं अतीत के
अंागन में
झूलते हुए
 बीती बातेां के
झूले में ,
वर्षंेा से बंद दराज में
मिली जुली घटनाओं ताजी खुश्बू
सांसों में भर
छूती हूं
यादांे से सरोबार
उन तस्वीरों केा
जिनमें कैद है
कई कड़वे मीठे चेहरे
कई अनोखी बातें
वे बातें
जिन पर
तब ध्यान ही न गया
था,
और अब
वही
कितनी अच्छी
कितनी भली
कितनी रोचक
कितनी अनोखी
लगने लगी है
कि लगता है
 झट से
किसी से कह कर
उन पर ठहाका
लगाकर आज
जीवंत कर लूं
फिर से!!!!!!!
किरण राजपुरोिहत ििनितला



शुक्रवार, 4 सितंबर 2009

मेरी किवता

.....ऐसा लगता है

आजकल
कुछ कमी सी लगती है
इन कानों केा
इन नथुनों को
 लगता है जैसे
कुछ लगातार
घट रहा है,
धरा को श्राप है
जेा कम होना चाहिये
वह बढ रहा है---
खून खराबा प्रदूशण जहर द्वेश ,
जेा बढना चाहिये
वह घट रहा है
प्रेम षांति विष्वास
....किरण राजपुरोहित नितिला

बुधवार, 2 सितंबर 2009

......ऐसा लगता है

आजकल
कुछ कमी सी लगती है
इन कानों केा
इन नथुनों को
 लगता है जैसे
कुछ लगातार
घट रहा है,
धरा को श्राप है
जेा कम होना चाहिये
वह बढ रहा है---
खून खराबा प्रदूशण जहर द्वेश
जेा बढना चाहिये
वह घट रहा है
प््रेाम षांति विष्वास
....किरण राजपुरोहित नितिला