गुरुवार, 26 नवंबर 2009

किवता

"कसक "

अप्रतिम सौंदर्य से इठलाती है फुलवारी
रक्ताभ पंखुडियों से सजी है जिसकी क्यारी क्यारी
पूर्ण सुरभित है माहौल महक से
फिर क्यूँ कराहे कोई तड़प से .....!

ज़रा सुनूँ नाद यह किसका ?
दर्द भरा रुदन यह जिसका
रुदन में जिसके तीखा है स्वर
यह तो एक पुष्प है बर्बर ...

करे सवाल वह गुलाब से
क्यूँ करे तू छलनी इन काँटों से ?
गुलाब कहे तू कर ले शिकवा
हक़ लिया है तुने इसका

व्यथा अपनी कहूँ मैं किससे
काँटों भरा है जीवन जिसका
छलनी मैं भी तो होता हूँ
अपने ही जीवन अंशों से
पर दूर कभी न जाऊंगा
डरकर के इन दंशो से...

छिपा मर्म जो बतलाया
एक आंसूं भी संग हो आया
आंसू भी तो कसक थी दिल की
शबनम बनकर संग हो गयी
सहर्ष साझेदार हो गयी
मादकता के अनुभव की ....