गुरुवार, 21 मई 2009


ओ! चिरैया
ओ आंगन की गोरैया ओ!
सुन मेरी चिरैया ओ
चहकती है तू अलसवेरे
जलते हैं दीप बहुतेरे
यहंा से वहां 
गोद की जमीं से
हदय के आसमां तक
इधर उधर 
तुम चंचल लहर 
मस्त स्वछंद
घर में गूंजता छंद
अल्हड़ हिरनी सी
उमंगें कुलाचती सी
अठखेलियों से दिप दिप
ये मेरा मन आंगन
पर जानती हूं मैं
उड़ जाओगी इक दिन 
अन्य आकाश में
आशीष विश्वास की पाखें ले
नया आसमां तलाशने
अल्हड कदम 
डग बन जायेगें
दृढ़ता के 
चहकेगा इक नया आयाम  
आत्मश्विासी लहर बन 
बना जाओगी नई सीमायें
कुलांचों से शिखर छू लोगी तुम!
  किरण राजपुरोहित नितिला

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