सोमवार, 4 मई 2009


फिर भी उसका धर्म


वह
कइ्र्र दिन बाद
आज फिर हुमकती आई वह
पल्लू को मुंह में दबाकर
शर्माते हुये दरवाजे की ओट में हो गई
मैं समझ गई,
फिर उदास सी काम में जुट गई
झुकी हुई पीठ पर नजर आये
ताजे उभरे निशान
फुर्ती से ढक गई
मैं समझ गई ,
नजरें झुकाकर फिर जमीन कुरेदने लगी
उसकी ये नजरें ये कलाप
जाने पहचाने है मेरे
उसने कुछ कहा नही
पर मैं समझ गई ,
गहरे रंग के सिंदूर तले
फिर आकार ले रही थी
उसके भगोड़े पति की आठवी संतान और
पीठ पर झांकती उसके चरित्र की सुनवाई
मैं समझ गई
भाग जाना सारे पैसे लेकर एक बार फिर ,
मैंने पूछना चाहा............???
वह समझ गई
ठंडी उसांस भर बोली
‘’ कैडो़‘ ई व्है तो म्हारों सुहाग है
जीवण रो आधार
म्हारे टांबरां रो बाप है
सतियां रो धरम ई ओइ‘ ज है ’’
म्ंौं पूछती हूं तुम दोनों के धरम इतने विपरीत क्यों हैे?
...........किरण राजपुरोहित नितिला






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