सोमवार, 4 मई 2009


ओस की बँूदें
सुबह टहलते हुये
भिगो देती है
मन अंतर्मन
नन्ही घास पर ओस की बूँदें ,
महसूसता हूं
भीतर तक आर्द्रता
सेाख लेता है तनिक तृषित मन
चू पड़ी हो जैसे
बालू पर बँूदें,
जल्दी से आगे बढ़ जाता हँू किंतु
हथेली पर लिये खड़ी पाता हँू
प्त्तियों को ओस की बँूदें
भर लो!आखेां में
समा लो! हृदय में
जरूरत है, जरूरत पड़ेगी
जब बाजार में हुये विस्फोट से
आहत लोगों के क्रंदन सुन कर भी
झुका सिर,अनदेखा कर
गुजरने लगोगे!
....................किरण राजपुरोहित नितिला




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