शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009

Kavita

दिन

दिन भी कितने
अजीब होते है
कभी काटे नहीं कटते
कभी झट फुरर्र हो जाते
कभी उदास दिखते
कभी दिखते खुषी से सरोबार
कभी झाूमते आते
गुनगुनाते चले जाते
कभी प्रतीक्षा ही रहती
जैसे पेढ़ की डाली पर
मन्नत के रुमाल की तरह
अटक गये
कभी अचानक आकर ऐसे
टिक जाते जैसे
यही थे
नजर नही आये थे
धुंध से
छूकर थामना चाहो तो
सरकते रुठे बच्चे की तरह
और सरक सरक कर
तरसाते
हाथ पर हाथ धर बैठ जायें
तो तितली की भांति हौले से
आबैठते कंधें पर

किरण राजपुरोहित नितिला

1 टिप्पणी:

naresh singh ने कहा…

दिनों की के बारे मे, मै भी आपसे सहमत हू । खुशी के दिन तो मुठी की रेत होते है पता नही चलता कि कब निकल जाये । लेकिन गमो के दिन तो भयानक बीतते है । आपकी यह रचना बहुत सुन्दर है |