दिन
दिन भी कितने
अजीब होते है
कभी काटे नहीं कटते
कभी झट फुरर्र हो जाते
कभी उदास दिखते
कभी दिखते खुषी से सरोबार
कभी झाूमते आते
गुनगुनाते चले जाते
कभी प्रतीक्षा ही रहती
जैसे पेढ़ की डाली पर
मन्नत के रुमाल की तरह
अटक गये
कभी अचानक आकर ऐसे
टिक जाते जैसे
यही थे
नजर नही आये थे
धुंध से
छूकर थामना चाहो तो
सरकते रुठे बच्चे की तरह
और सरक सरक कर
तरसाते
हाथ पर हाथ धर बैठ जायें
तो तितली की भांति हौले से
आबैठते कंधें पर
किरण राजपुरोहित नितिला
1 टिप्पणी:
दिनों की के बारे मे, मै भी आपसे सहमत हू । खुशी के दिन तो मुठी की रेत होते है पता नही चलता कि कब निकल जाये । लेकिन गमो के दिन तो भयानक बीतते है । आपकी यह रचना बहुत सुन्दर है |
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