गुरुवार, 21 जनवरी 2010

कहानी

नीड़ में नई चहक
  गालों पर नमी का अहसास हुआ। जाने कब  से नम हुई आँखें बरस गई। पीछे से पदचाप आती हुई सुनाई पडी़ झटपट आँखें पोंछी और नाश्ता परोसने लगी। नम्रता ने अंदाज लगाया कि यतीश रसोई के द्वार पर कुछ क्षण खड़े रह कर पलट गये। जानते हैं कि अब उसका आँसुओं से तर चेहरा दिखेगा और उनकी भी आँखें भर आयेंगी। बड़ी मुश्किल से कुछ महीनों बाद इन दिनेंा की सुबह की ताजगी को वाकई में ताजा मान कर महसूस करने में जुटे है। इस सिलसिले में रुकावट कुछ अच्छी सिद्ध न होगी।
कुछ क्षणों बाद  बलात् ही सहज हुई वाण्ी सुनाई दी ‘‘अरे! नाश्ता लाओ भई! देर हो रही है।’’
नम्रता ने नाश्ता ट्रे में रखा। कुछ क्षण ठिठक कर अपने उदास चेहरे पर सहजता लाते हुये चली और बोली
’’अच्छा जी! नाश्ता कबसे तैयार ही है। आप ही देर से तैयार हुये और इल्जाम मेरे सिर!‘‘
   खुश होने का आवरण ओढ़े यतीश को विदा किया। दरवाजे से पलट कर बरतन समेटने लगी। दही की प्याली पर नजर पड़ी। तो वहीं ठहर गई और आँखों में पानी भर आया। दही और शक्कर पिता-पुत्रों की एक सी पसंद। तीनों को ही हर मौसम में दही के साथ शक्कर या मिश्री चाहिये। इसके बिना खाना पूरा नहीं होता। कई दिनों तक तो आदत के अनुसार तीन प्यालियों में ही दही परोसती रही थी। लेकिन अब उनको मनपसंद गाढ़ा दही कहाँ मिलता होगा? बाहर का बेस्वाद और नीरस खाना कैसे खा पाते होगें बच्चे? फिर आसुओं की धारा बह चली तो वहीं सिर पकड़ बैठ गई। चक्कर का एक जोरदार झन्नाटा आया। हाथ पाँव ठंडे पड़ गये। बमुश्किल ही बिस्तर तक पहुँची। गद्दे के पास रखी तस्वीर से ही हाथ टकराया। तस्वीर को उठा कर देखा लेकिन पनियाई दृष्टि कुछ न देख सकी फिर भी नम्रता जानती है इस फोटो में तीनों पिता-पुत्र किसी बात पर जोरदार ठहाका लगा रहे हैं। भरपूर संतुष्टि और प्रसन्नता के फूल झर रहे हो जैसे। बीते मुछ महीनों में हजारों बार इस तस्वीर को देखा है। अचानक दराज खींचने की आवाज सुन कर आँखें पोंछी तो देखा यतीश गाड़ी की चाबी निकाल कर मुड़कर जा रहे हैं। न उसने ही कुछ पूछा, न उन्होंने। मौन में ही संपे्रषण हो चुका। अगर बात होती तो भी कुछ ऐसे ही हेाती सदैव की तरह।
 ’’ये क्या नम्रता ......तुम फिर रो रही हो? मत रेाओ। क्यूँ अपना स्वास्थ्य बिगाड़ रही हो। बच्चे होस्टल में ही तो गये है केाई सात समुन्दर पार नहीं। वो भी अपनी पढ़ाई के लिये फिर क्यूँ इतना रोती हो बोलो?’’ बहुत दुलार से पूछते।
‘‘.....................’’
‘‘याद आती है....? मैं मानता हूँ.मुझे नही आती क्या........?मैं भी तो........’’ इससे आगे यतीश भी नहीं बोल पाते। उसको सीने से लगा खुद भी रो पड़ते। जीवन में बड़ी से बड़ी विपदाओं में भी हँसते रहने वाले जीवटता के धनी यतीश की आँखों में आँसू देख जैसे वह स्वप्न से जाग पड़ती। उनके आँसू भला  नम्रता कैसे देख सकती है? झट सहज होकर हँसते हुये फाटक तक ठेल कर विदा कर आती। चेहरे पर मुस्कुराहट लाकर  नम्रता के गाल थपथपाकर कहते ‘‘परेशान न हो, बच्चे अपना
नया आसमाँ  तलाश  कर रहे हैं। उन्हें पीछे से आवाज न दो। एक दो दिन फोन मत करना।  उन्हें हॅास्टल के जीवन में ढ़लने दो‘‘।
  कई दिनों तक ऐसा चलने के बाद अब यतीश ने उसको  शांत करने का उपक्रम छोड़  दिया। शायद समझा-समझा कर थक गये। फोन कर के भी क्या होगा? उधर बेटे रुँधे गले से बात करेगें इधर वह खुद भी। खाने-पीने, पढ़ाई का ध्यान रखने के दो चार जुमले मुश्किल से बोल पायेगी। बच्चे भी कहेगें माँ! हमारी चिंता मत करना । आप दोनों
अपना खयाल रखना। स्नेहसिक्त उन मिश्री घोलते संवादों के बीच में दोनों ओर में से एक तरफ से एकाएक फोन रख दिया जायेगा। भर्राए स्वर में केाई भी अधिक न बोल पाता। उस के बाद नम्रता को बच्चों की याद के साथ-साथ एक चिंता और बढ़ जाती कि बच्चे उस अनजाने माहौल में अभी तक रचे-बसे नहीं है। यह बात अधिक  पीड़ा देती।
 उदास सी वह उठी  और काम में जी लगाने की कोशिश करने लगी। काम भी क्या है अब? घर जमा जमाया ही रहता। कई-कइ दिन टीवी तक चलाने की नौबत नही आती। जब मन ही उदास हो तो मनेारजंन के तमाम साधन बोझिल लगने लगते हैं। बिखेरा करने वाला है ही कौन? बच्चे यहाँ थे तब सुबह से शाम चकरघिन्नी सी घूमती रहती थी। सबकी फरमाइशें पूरी करने में ही जुटी रहती। दोपहर को स्कूल से घर आने के बाद घर को तो जैसे सिर पर ही उठा लेते। शाम तक लगभग सारी चीजें जमीन पर लेटी मिलती। बच्चों के पापा तो बच्चों से दो कदम आगे रहकर उन से भी छोटे बन जाते। घर को भी खेल का मैदान बना देते।  बीच-बीच में जूस -चाय, शिकंजंी की फरमाइशें चलती रहती। साथ में एक-दो दोस्त भी आ जुटते। फिर तो क्या कहना! भुनभुनाते हुये वह जब अस्त -व्यस्त सामान समेटने लगती तो उसका पारा चढ़ा जान तीनों ही सयाने बन कर मदद करने लगते। उनके भोले - भाले  निश्छल चेहरे देख नम्रता की तमतमाहट न जाने कहाँ छुप जाती। माँ! ये....माँ! वो... करते-करते स्कूल की, बाहर की कई बातें करते जाते। छोटे को तो अब तक उसकी गोद में ही सिर रख कर लेटना अच्छा लगता। फिर तो बड़ा भी जिद करता। आखिर नम्रता पालथी लगा कर बैठती । दोनों को ही सिर रखने की जगह देती फिर भी गोद में ज्यादा जगह को लेकर नोंक-झोंक चलती ही रहती।
भारी मन से वह उठी। सोचा कुछ जी बहलाये लेकिन कहाँ...........? घर के कण-कण में बेटों की याद, उनकी आवाजें, उनके भोले चेहरे समाये है जो आँखों से हटने का नाम ही नहीं लेते। हटे भी कैसे? पिछले सोलह सालों से उसकी दुनिया उसके दोनों बेटों के इर्द-गिर्द सिमटी थी। इन वर्षों में एक भी पल उन दोनों के बिना नहीं गुजारा और अब एक दम से ही दोनों दूसरे शहर चले गये। एक दिन के नहीं बल्कि कुछ वर्षों के लिये,जब तक कि पढ़ाई  पूरी नहीं हो जाती।
 लंबी उसांस  खींच कर रह गई। इन्ही जंजालों में डूबते-उतराते न जाने कब नींद आ गई। धीरे-धीरे पलकों में सपना उघड़ने लगा। दोनों बेटे साथ-साथ एक दूसरे का हाथ थामे हुये धुंधलके में सहमे हुये चले जा रहे हैं। भयग्रस्त  नजरों से इधर-उधर देख रहे हैं, किसी को ढँूढते से ..........झटके से जागी
नम्रता। उठ कर बैठ गई। यतीश घर आ गये थे और शायद उसे सोया जान खुद ही चाय बना रहे थे। उसे बैठा देख हाथ में थामे कुछ लाये।
     ‘‘देखो मैं क्या लाया हूँ।’’चहकते हुये यतीश बोले। चैंक कर देखा तो पाया कि एक हाथ में ब्रश,रंग और दूसरी हाथ में कैनवास थामे है और उस के देखते ही
एक हाथ अपने सीने पर रख कर झुक कर अभिनय जैसा सलाम  किया। वह खिलखिलला कर हँस पड़ी ।
 ‘‘चलिये मुझे जोकर की तरह देखकर ही सही बादलों में छुपी रोशनी की किरण नजर तो आई।’’ कहते -कहते बड़ी अदा से यतीश ने उसके पैरों के पास हाथ का सामान रखा और  घुटनों के बल बैठ गये।
 ‘‘बस तुम आज से ही पेंटिग शुरु कर दो। तुम कहती थी ना शादी से पहले पेंटिंग का शौक था लेकिन बाद में छूट गया। क्यूँ नहीं अब ही इस शौक को पूरा कर लो। समय का सदुपयोग हो जायेगा। तुम्हें छोटे बच्चों की तस्वीरें खास पसंद है ना तो सबसे पहले
नन्हे मुन्ने का पोट्रेट बनाना।‘‘ उसने ब्रश को छुआ और टकटकी बाँध कर देखने लगी। कुछ क्षण निस्तब्धता छाई रही। यतीश उसकी मुद्रा  चिंतातुर से देखने लगे जैसे अब क्या कहने वाली है।
कुछ क्षण बाद नम्रता ने ब्रशों को नीचे रखा और धीरे-धीरे चलकर मेज तक पहुँची ,वहाँ पड़ी तस्वीर उठाई जिसमें दोनों बेटे चैन से सोये हैं। छोटा छः महीने का ,बड़ा तीन साल का था तब यह निस्संग नींद का क्षण उसने कैमरे में ही नहीं स्मृति में भी संजो लिया था। सच! कितना शौक था उसे अपने बच्चों के पल-पल बदलते रुप, उनकी चपल मुदा्रओं को कैद करने का। काफी कुछ उसने अपना यह शौक पूरा भी किया। उन यादगार स्मृतियों को हमेशा यादों में भी जीया है और फोटो के रुप मेें भी । जब-तब एलबम का जखीरा ले बैठती है। सचमुच दिन तो जैसे पंख लगाये आते हैं और फुर्रर हो जाते हैं। आज कहाँ वे दिन?
लंबी साँस भरकर बोली ‘‘नहीं यतीश अब ये नहीं होगा। पहले मनःस्थिति और थी अब तो मेरा चित्त ही ठिकाने नहीं है तो भाव क्या उकेर पाउँगी। बेजान हाथों से चित्रों में खिलखिलाहट नहीे डाली जा सकती।’’
‘‘ लेकिन कोशिश तो.......’’
‘‘नहीं यतीश ....भगवान के लिये... दबाव न डालो।’’
‘‘लेकिन ऐसे कब तक चलेगा। तुम्हारे मन की स्थिति बिमारी के रुप में उभरने लगी है और समय के साथ बढ़ेगी  ही कम नहीं होगी। नम्रता सच के साथ सामंजस्य बिठाओ। बच्चे दो-चार दिनों के लिये नहीं गये हैं समझने की कोशिश करो। उन्होंने नया रास्ता तलाशा है जो तुम्हारी गोद तक वापिस नहीं आयेगा। पढ़ाई पूरी करेगें, कल नौकरी लगेगी ,शादियाँ होगी । उनका भी परिवार होगा।जहाँ काम होगा वहीं रहना भी पड़ेगा। तुम ये माने बैठी हो कि वापिस यहीं लौट कर आयेगें। ऐसा नहीं होगा !! तुम्हारे कारण मैं भी तनाव में रहने लगा हूँ।’’ कहकर  यतीश ने अविचलित खड़ी नम्रता को झिंझोड़ा।
 ‘‘घर की खुशियाँ तो जैसे कहीं खो सी गई है। हरदम उदासी का वातावरण अच्छा नहीं है। नम्रता समझने की कोशिश करो।’’
‘‘ लेकिन मेरा बच्चों से दूर रहना बहुत मुश्किल है।’’
कुछ दिनों बाद यतीश ने उससे कुछ कागजों पर दस्तखत कराये। उसके बहुत पूछने पर भी कुछ न बताया बस केवल मुस्कुराते रहे।
   एक शाम को एकाएक ही किसी बहुत छोटे बच्चे के रोने की आवाज कानों में पड़ी। ऐसा लग रहा था जैसे बहुत ही पास से आवाज आ रही है। पल भर में ही आवाज की दिशा में लपक पड़ी। दरवाजा खोला तो सामने कोई न था।
आवाज वाला प्राणी धरती हाथ पाँव पटक-पटक कर रो रहा था।  अनायास ही रोते शिशु को गोद में उठा लिया। और उसे जैसे इसी गोद का इंतजार था। वह चुप हो गया। लेकिन नम्रता की आँखों में खुशियों की धार थी। उसे लगा जैसे उसका बेटा ही
खिलौने का रुप धर कर आ गया। अब उसने देखा कि गुलाबी फ्राॅक में लिपटी वह नन्हीं गुड़िया है। भोले से मुखड़े को  बेतहाशा चूम कर उसे गले से  लगा लिया।
‘‘ अपनी ममता को थोड़ा विश्राम दो ......और ये लो।’’यतीश चहकते हुये अवतरित हुये।
‘‘ अ.....आप....ये.....ये..गुड़ि़या क...कौन है और ये क्या है?’’
‘‘.................’’
‘‘आप निश्चिंत हैं इसका मतलब आप इसे जानते हैं
‘‘ये.....ये.....हूँऽ ऽ ऽये चीया है। क्यों चीया नाम ठीक है ना अपनी बेटी का? और ये हमारी बेटी के खिलौने है।’’
‘‘ह.....ह.....हमारी गुड़िया .....हमारी चीया?’’

‘‘ हाँ ..हाँ हमारी । तुम अक्सर कहा करती थी ना कि हमें अपने बच्चों के लिये ही नही दूसरों के बच्चों के लिये भी कुछ करना चाहिये। पहले तो हमें फुर्सत नही थी सोचा अब भी क्या देर हुई है। अब तो पूरा ध्यान दे सकेगें।’’
‘‘तो ....तो वो कागज.....उस...दिन’’
‘‘ हाँ हम कानूनी तौर पर भी इसे अपनी बेटी कह सकते हैं। और तो और हमारे बेटे भी छोटी बहन का आना सुनकर बहुत खुश है।’’
‘‘ सच यतीश मन पढ़ना कोई तुमसे सीखे। मैं भी ऐसा ही कुछ चाहती थी।’’
   और नीड़ में नई चहक ने जैसे अंजुरी भर - भर खुशियाँ बिखरा दी।

                               ----किरणराजपुरोहित‘नितिला’              
              







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1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

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