रविवार, 5 सितंबर 2010

जमीन की ओर लौटते लोग


जमीन की ओर लौटते लोग

उखड़े थे जो

समय की मांग पर

कुछ बनने की राह

अच्छा कमा कर

सभ्य बनने के लिये

गाड़ी बंगले  के लिये

गये थे

गांव के चौंहटे से उठ कर

विकास के लिये

लिपा आंगन

 नीम निंबोली

खेजड़ी खेलरा

गूंदी गूंदे की पुकार को

अनसुनी कर

 श्वेत लोगों में

जो उन्हें केवल भारतीय ही मानते रहे

 आजकल उन्हें

सपने में देश दिखाई देने लगा है

जो कभी यहां आकर

 नाक पर रुमाल रखकर

सरकार को कोसते हुये

विदेश के गुण गाते हुये

मिनरल वाटर पीते हुये

अधर अधर रह कर

कुछ दिनों में ही भागकर वहां पहुचते

और  खुद को धन्य  मानते

आकाश में विचरते

 नीचे देखने से कतराते थे

अब जब दूसरी पीढ़ी के लिये

केवल पुराने बुढे रह गये है

अपनी समस्त उर्जा

व बुद्धि सौंप  पराई धरती को

सींच उनके देश को

बचा खुचा देने

अपने  देश को

एकाएक  ही उन्हें

देश की चिंता होने लगी है

उन्हें जमीन की याद आने लगी है

 खुश्बू खींचने लगी है

नींवें सींचने लगी

वे कहते है

कुछ करना चाहिये देश के लिये

खुद की धरा के लिये

अपनी  माटी तो अपनी ही है

इंसान लौटता तो

आखिर

जड़ों की ओर ही है!!!
---------किरण राजपुरोहित नितिला



 

1 टिप्पणी:

रश्मि प्रभा... ने कहा…

kalam kee dhaar paini hai, soch kee jaden gahree hain , khyaalon kee dharti per ye ghar bana hai....

apni rachna 'vatvriksh' ke liye bhejen - rasprabha@gmail.com per