सोमवार, 29 जून 2009


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उत्तर ही हुये जब 
प्रश्न से गुत्थम गुत्था क्या खोजें? 
चांदनी ही झुलसाये 
कंांेपल को
 तब क्या प्रखर धूप को इल्जाम दें ?
सुबह उदास सी जगे
 थकी सांझ को क्या बजें? 
रिश्तों की चुभन ही क्या कम थी?
जो अब गीत भी चुभें 
दूरी ही आततायी बनी 
और कहते हो न आयंे तो? 
जीवन के झंझावत क्या कम थे 
मौसम के थपेड़े आ आ टकराये 
मन के दावानल में झुलसा तन 
क्या गुहार लगाये, 
भीतर का प्रश्न ही दुबक गया तो 
उत्तर किसको गले लगाये? 
बिन भाव के 
उत्तर कब तक लंगड़ाये?
 बिचैलिया आ आ गांठ लगाये
 प्रश्न हुये अनुत्तरित से 
मौन ने साधा अगणित रोष 
भटके भाव 
ढूंढ लिये 
तमाम रस
 शब्द शब्द 
 कोश कोश 
अब गूंगी भाषा क्या कहे?

---किरण राजपुरोहित नितिला