बुधवार, 26 अगस्त 2009

मेरी किवता

विष्वास ये गूंजते रहे 

मुड़े हैं जिंदगियों के पन्ने
वक्त उन्हें उधेड़ता बुनता रहा
दंगाइयों के कहकहे सुन कर
जमीं का बदन हरहराता रहा
                                       
क्यूं है क्या है कौन है??
प्रष्न सदैव पूछते रहे


थका सा सूरज उगा लज्जित सा
और दोपहर तिलमिलाती है
आस्था के आंगन में
तुच्छ रोषनी झिलमिलाती है


यादों के पिछवाड़े में सदा
मोरमन मौन कूकते रहे



किलकारी ही कत्ल न हो
मां हर पल मन्नत यही मांगती
जवानियों के ज्वार न भटके
आषीशें हर रात जागती

बदलेगा इंसान यद
िविष्वास ये गूंजते रहे!!! ----किरण राजपुरोहित नितिला

2 टिप्‍पणियां:

Vipin Behari Goyal ने कहा…

मुड़े हैं जिंदगियों के पन्ने
वक्त उन्हें उधेड़ता बुनता रहा

शुरू से ही भावनाओं पर शब्दों की गिरफ्त

सुंदर है

Shobha Rajpurohit ने कहा…

bhutt khoobsurat.