शनिवार, 29 अगस्त 2009

मेरी कविता

वो ------------
वेा मेरे अंतस में छुपा रहा
मैं दर दर सिर पटकता रहा
सारी उमर यूं मासूम बना
वो मुझे रोज ही ठगता रहा
देखा जब भी प्यार से उधर
अजनबी सा ही तकता रहा
बांटना चाहा दर्द उसके
क्यूं मेरे हाथ झटकता रहा 

म्ेारी सूरत ही है ऐसी
जिंदगी भर ये समझता रहा
देखा सदा मतलब से अपना
मैं बस यही षुक्र मनाता रहा
 साथ मेरे वो मेरा साथी
इन खयालों में भटकता रहा

-किरण राजपुरोहित नितिला


1 टिप्पणी:

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) ने कहा…

किरण जी ,आपकी कवितायें तो बेशक अच्छी हैं....किन्तु हिंदी की अशुद्दियां अक्षम्य हैं.....क्योंकि वे बहुत ज्यादा हैं....और इसीलिए खलने वाली हैं......!!